बुधवार, 29 जून 2011

259. आत्मीयता के क्षण

आत्मीयता के क्षण

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आत्मीयता के ये क्षण
अनकहे भले ही रह जाए
अनबूझे नहीं रह सकते। 

नहीं-नहीं, यह भ्रम है
निरा भ्रम, कोरी कल्पना
पर नहीं, उन क्षणों को कैसे भ्रम मान लूँ
जहाँ मौन ही मुखरित होकर
सब कुछ कह गया था।  

शाम का धुँधलका
मन के बोझ को और भी बढ़ा देता है
मंज़िलें खो गई हैं, राहें भटक गई हैं
स्वयं नहीं मालूम, जाना कहाँ है। 

क्या यूँ निरुद्देश्य भटकन ही ज़िन्दगी है?
क्या कोई अंत नहीं?
क्या यही अंत है?
क्या कोई हल नहीं?
क्या यही राह है?
कब तक इन अनबूझ पहेलियों से घिरे रहना है?

काश!
आत्मीयता के ये अनकहे क्षण
अनबूझे ही रहते।  

- जेन्नी शबनम (25. 1. 2009)
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5 टिप्‍पणियां:

विभूति" ने कहा…

gahan chintan....

प्रेम सरोवर ने कहा…

आपके सुंदर मन से निकले उच्छवास जीवन के सही संदर्भों में मेरे मन के संवेदनशील तारों को झंकृत कर गए। कभी-कभी मौन रहना भी स्वीकृति का संदेश दे जाता है। आत्मीयता के अप्रतिम क्षणों में हम कितने भी कोरे क्यूं न हों अंतर्मन में उन भावुक क्षणों में एक महाकाव्य सा जीवन की स्वत: सृष्टि हो जाती है एवं हम जिंदगी के उस चौराहे पर पहुँच जाते हैं जहाँ से कोई मंजिल नजर नही आती है।मेरी अपनी मान्यता है कि आत्मीयता के क्षण अनबुझे नही रहते। इस सुंदर एवं भाव-प्रवण प्रस्तुति के लिए आपको मेरी और से अशेष शुभकामनाएं। गुजारिश है-कभी-कभी समय इजाजत दे तो मेरे ब्लाग 'प्रेम सरोवर' पर भी आकर मुझे उचित मार्गदर्शन करने की कोशिश करें।धन्यवाद।

वाणी गीत ने कहा…

काश आत्मीयता के ये क्षण अबूझे ही रहते ....
काश !

Unknown ने कहा…

खूबसूरत अभिव्यक्ति ,जेन्नी जी आपकी रचनाओ में मनोभाव की मार्मिकता कही अन्दर तक स्पर्श करती है बधाई

सहज साहित्य ने कहा…

जेन्नी जी इन पंक्तियों में- 'काश!
आत्मीयता के ये अनकहे क्षण
अनबूझे ही रहते। आत्मीयता के क्षणों को अनबूझे रहने की बात जो कही है , उसका अपना सौन्दय है । जब बूझ लेंगे तो उन क्षणों का महत्त्व कम हो जाएगा । आपकी इस कविता में भाव-सूत्र बहुत सूक्ष्म रूप में आया है । इन पंक्तियों में आपने पूरा सार तत्त्व उतार दिया है ।सुन्दर लेखन के लिए अनन्त शुभ कामनाएँ!