मंगलवार, 6 सितंबर 2011

280. जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ

जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ

*******

मन में कुछ दरक-सा जाता है
जब क्षितिज पर अस्त होता सूरज देखती हूँ
ज़िन्दगी बार-बार डराती है
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ। 

सपने ध्वस्त हो रहे हैं 
हवा मेरी सारी निशानियाँ मिटा रही है
वुजूद घुटता-सा है
ज़ेहन में मवाद की तरह यादें रिसती हैं
अपेक्षाओं की मुराद दम तोड़ती है
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ। 

सहेजे सपनों की विफलता का मलाल
धराशायी अरमान
मन की विक्षिप्तता
असह्य हो रहा अब ये संताप
मन डर जाता है जीवन के इस रीत से
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ। 

हूँ अब ख़ामोश
मूक-बधिर
निहार रही अपने जीवन का
अरूप अवशेष। 

- जेन्नी शबनम (11. 9. 2008)
____________________

10 टिप्‍पणियां:

vidhya ने कहा…

मन से लिखी गई
बहुत ही सुन्दर है

सहज साहित्य ने कहा…

जेन्नी शबनम जी इन पंक्तियों में गहरा अवसाद अभिव्यक्त हुआ है-"सहेजे सपनों की विफलता का मलाल
धाराशायी अरमान,
मन की विक्षिप्तता
असह्य हो रहा अब ये संताप,
मन डर जाता जीवन के इस रीत से
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ" यह अवसाद सचमुच बहुत डराता है । आपने इस गहन अनुभूति को उसी के अनुरूप भाषा में स्वरूप प्रदान किया है ।

आशा ढौंडियाल ने कहा…

दीदी,आपने सहज ही मन के अकेलेपन का इतना मार्मिक चित्रण किया है इस रचना में कि,आँखों के आगे चलचित्र सा खिंच गया...बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना है....शुभकामनाये..

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत भावपूर्ण रचना....बधाई.

Unknown ने कहा…

निर्मल मन से बेबाक भावनाए जेन्नी जी आपकी शैली है जो मुझे प्रभावित करती है प्रवाह बनाये रखे .

विभूति" ने कहा…

मन डर जाता जीवन के इस रीत से
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ !
बहुत खुबसूरत पंक्तिया....

Nidhi ने कहा…

संवेदना से भरी..भावनाओं से परिपूर्ण रचना

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

khoobsoorat!!

prritiy----sneh ने कहा…

मन डर जाता जीवन के इस रीत से
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ !

bahut tadap liye huye hai aapki rachna, bahut achha likha hai.

shubhkamnayen

विभूति" ने कहा…

जेन्नी शबनम जी आज हमने आपकी रचना तुम केवल मेरी कविता के पात्र हो वटवृक्ष
में पढ़ी बहुत बहुत ही खुबसूरत लगी.... इतनी प्यारी रचना के आपका बहुत बहुत आभार.....