सोमवार, 23 नवंबर 2020

698. भटकना (क्षणिका)

भटकना 

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सारा दिन भटकती हूँ   
हर एक चेहरे में अपनों को तलाशती हूँ   
अंतत: हार जाती हूँ   
दिन थक जाता है रात उदास हो जाती है   
हर दूसरे दिन फिर से वही तलाश, वही थकान   
वही उदासी, वही भटकाव   
अंततः कहीं कोई नहीं मिलता   
समझ में आ गया, कोई दूसरा अपना नहीं होता   
अपना आपको ख़ुद होना होता है   
और यही जीवन है।     

- जेन्नी शबनम (23. 11. 2020)
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11 टिप्‍पणियां:

शिवम कुमार पाण्डेय ने कहा…

वाह।

Meena Bhardwaj ने कहा…

सादर नमस्कार,
आपकी प्रविष्टि् की चर्चा मंगलवार ( 24-11-2020) को "विश्वास, प्रेम, साहस हैं जीवन के साथी मेरे ।" (चर्चा अंक- 3895) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।

"मीना भारद्वाज"

सधु चन्द्र ने कहा…

जीवन का यथार्थ लिखा है आपने
सादर नमन
अपना आप को खुद होना होता है
और यही जीवन है!
वाह!!!

जिज्ञासा सिंह ने कहा…

समझ में अब आ गया है
कोई दूसरा अपना नहीं होता
अपना आप को खुद होना होता है
और यही जीवन है! ...बहुत ख़ूब वर्णित किया है जीवन को..सटीक..।

Sudha Devrani ने कहा…

अपना आप को खुद होना पड़ता है...
बहुत ही सटीक.. जीवन का कटु सत्य...
वाह!!!

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर सृजन

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर

आलोक सिन्हा ने कहा…

बहुत सुन्दर |

Amrita Tanmay ने कहा…

सत्य कहा ।

अनीता सैनी ने कहा…

हर एक चेहरे में, अपनों को तलाशती हूँ
अंतत: हार जाती हूँ
दिन थक जाता है, रात उदास हो जाती है! ...बहुत ही सुंदर दी।

ऋता शेखर 'मधु' ने कहा…

सुन्दर सटीक अभिव्यक्ति...पर इतनी निराशा ठीक नहीं|