मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

21. घर

घर

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शून्य को ईंट-गारे से घेर, घर बनाना
एक भ्रम ही तो है,
बेजान दीवारों से घर नहीं, महज़ आशियाना बनता है,
घरों को मकान बनते अक्सर देखा है
मकान का घर बनना ख़्वाबों-सा लगता है

न राम-सीता का घर बसा कभी
वरना ग़ैर के आरोप से घर न टूटता कभी
न कृष्ण का घर बसा कभी
वरना हज़ारों रानियों पटरानियों से महल न सजता कभी,
न राजमहलों को घर बनते सुना कभी
वरना रास-रंग न गूँजता कभी

देखा है कभी-कभी यूँ ही, किसी फुटपाथ पर घर बसते हुए
फटे चिथड़ों और टूटी बरसाती से घर सजते हुए
रिश्तों की आँच और अपनेपन की छाँव से घर सँवरते हुए

ईंट की अँगीठी पर सूखी रोटी सेंकती मुस्कुराती औरत
टूटी चारपाई पर अधनंगे बच्चे की किलकारी
थका-हारा पस्त, पर ठहरा हुआ इंसान
उनका अटूट बंधन जो ओट देता हर थपेड़े से  
और बस जाता है एक घर

झोपड़ी-महल का फ़र्क़ नहीं, न ही ईंट-पत्थरों का है दोष
जज़्बात और यक़ीन की बुनियाद हो तो
यूँ ही किसी वीराने में, या आसमान तले, बस जाता है घर

- जेन्नी शबनम (14. 2. 2009)
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