बुधवार, 22 सितंबर 2010

176. पलाश के बीज / गुलमोहर के फूल / palaash ke beej / gulmohar ke phool (पुस्तक - 21)

पलाश के बीज / गुलमोहर के फूल

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याद है तुम्हें
उस रोज़ चलते-चलते
राह के अंतिम छोर तक
पहुँच गए थे हम
सामने एक पुराना-सा मकान
जहाँ पलाश के पेड़
और उसके ख़ूब सारे, लाल-लाल बीज
मुट्ठी में बटोरकर हम ले आए थे
धागे में पिरोकर, मैंने गले का हार बनाया
बीज के ज़ेवर को पहन, दमक उठी थी मैं
और तुम बस मुझे देखते रहे
मेरे चेहरे की खिलावट में, कोई स्वप्न देखने लगे
कितने खिल उठे थे न हम!

अब क्यों नहीं चलते
फिर से किसी राह पर
बस यूँ ही, साथ चलते हुए
उस राह के अंत तक
जहाँ गुलमोहर के पेड़ों की क़तारें हैं
लाल-गुलाबी फूलों से सजी राह पर
यूँ ही बस...!
फिर वापस लौट आऊँगी
यूँ ही ख़ाली हाथ
एक पत्ता भी नहीं
लाऊँगी अपने साथ 

- जेन्नी शबनम (20. 9. 2010)
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palaash ke beej / gulmohar ke phool

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yaad hai tumhen
us roz chalte-chalte
raah ke antim chhor tak
pahunch gaye they hum
saamne ek puraana-sa makaan
jahaan palaash ke ped
aur uske khoob saare, laal-laal beej
mutthi mein batorkar hum le aaye they
dhaage mein pirokar, maine gale ka haar banaaya
beej ke zevar ko pahan, damak uthi thi main
aur tum bas mujhe dekhte rahe
mere chehre ki khilaavat mein, koi swapn dekhne lage
kitne khil uthe they na hum!

ab kyon nahin chalte
fir se kisi raah par
bas yun hi, saath chalte huye
us raah ke ant tak
jahaan gulmohar ke pedon ki qataaren hain
laal-gulaabi phoolon se saji raah par
yun hi bas...!
fir waapas lout aaoongi
yun hi khaali haath
ek patta bhi nahin
laaungi apne sath.

- Jenny Shabnam (20. 9. 2010)
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9 टिप्‍पणियां:

दीपक 'मशाल' ने कहा…

हाथ पकड़ कर वापस कहीं यादों की छाँव में खींच ले जाने वाली कविता लगी.. आभार..

मनोज कुमार ने कहा…

आपकी इस कविता में से भावनाऒं का ऐसा सैलाव उठा कि कई पल रुक कर उन गुलमोहर के फूलों को निहारने पर विवश कर गया। शिल्प के वैशिष्ट से साधारण सी दिखने वाली घटना वाली कविता असाधारण हो गई है। घटना की मार्मिकता, सूक्ष्म, सघन दृष्टि और आपके काव्यात्मक विवरण से इसका वर्णन जीवंत हो उठा है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

देसिल बयना-गयी बात बहू के हाथ, करण समस्तीपुरी की लेखनी से, “मनोज” पर, पढिए!

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

uff premika ki thassak aapne sajo di..........shabdo me...:)

bahut bhawnapurn kavita..:)

खोरेन्द्र ने कहा…

अब क्यों नहीं चलते
फिर से किसी राह पर,
बस यूँ हीं
साथ चलते हुए
उस राह के अंत तक
जहां गुलमोहर के पेड़ों की
कतारें हैं,
लाल-गुलाबी फूलों से सजी
राह पर
यूँ हीं बस...
फिर वापस लौट आऊँगी
यूँ हीं खाली हाथ
एक पत्ता भी नहीं
bahut sundar abhivykti
kuchh lekar nahi aanaa chati

kyonki dene ke baad
kuchh shesh hoga hi nahi

vah .......

kishor

Unknown ने कहा…

बढ़िया कविता ............

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति...

रश्मि प्रभा... ने कहा…

यूँ हीं खाली हाथ
एक पत्ता भी नहीं
लाऊँगी अपने साथ !
bahut kuch hai is na lane me

Akanksha Yadav ने कहा…

बहुत सुन्दर...मन को छू गई यह रचना...बधाई.
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'शब्द-शिखर'- 21 वीं सदी की बेटी.

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

.. बहुत बढ़िया कविता