बुधवार, 26 जनवरी 2011

208. पिघलती शब

पिघलती शब

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उन कुछ पलों में जब अग्नि के साथ
मैं भी दहक रही थी
तुम कह बैठे -
क्यों उदास रहती हो?
मुझसे बाँट लिया करो न अपना अकेलापन
और यह भी कहा था तुमने -
एक कविता, मुझ पर भी लिखो न!

चाहकर भी तुम्हारी आँखों में देख न पायी थी
शायद ख़ुद से ही डर रही थी
कहीं ख़ुद को तुमसे बाँटने की चाह न पाल लूँ
या फिर तुम्हारे सामने कमज़ोर न पड़ जाऊँ 
कैसे बाँटू अपनी तन्हाई तुमसे
कहीं मेरी आरज़ू कोई तूफ़ान न ला दे
मैं कैसे लड़ पाऊँगी
तन्हा इन सब से!

उस अग्नि से पूछना 
जब मैं सुलग रही थी
वो तपिश अग्नि की नहीं थी
तुम थे जो धीरे-धीरे मुझे पिघला रहे थे
मैं चाहती थी उस वक़्त
तुम बादल बन जाओ
और मुझमें ठंडक भर दो
मैं नशे में नहीं थी
नशा तो नसों में पसरता है
मेरे ज़ेहन में तो सिर्फ़ तुम थे
उस वक़्त मैं पिघल रही थी
और तुम मुझे समेट रहे थे
शायद कर्तव्य मान
अपना पल मुझे दे रहे थे
या फिर मेरे झंझावत ने
तुम्हें रोक रखा था
कहीं मैं बहक न जाऊँ!

जानती हूँ वह सब भूल जाओगे तुम
याद रखना मुनासिब भी नहीं
पर मेरे हमदर्द!
यह भी जान लो
वह सभी पल मुझ पर क़र्ज़-से हैं
जिन्हें मैं उतारना नहीं चाहती
न कभी भूलना चाहती हूँ
जानती हूँ अब मुझमें
कुछ और ख़्वाहिशें जन्म लेंगी
लेकिन यह भी जानती हूँ
उन्हें मुझे ही मिटाना होगा!

मेरे उन कमज़ोर पलों को विस्मृत न कर देना
भले याद न करना कि कोई 'शब' जल रही थी
तुम्हारी तपिश से कुछ पिघल रहा था मुझमें
और तुम उसे समेटने का फ़र्ज़ निभा रहे थे
ओ मेरे हमदर्द!
तुम समझ रहे हो न मेरी पीड़ा
और जो कुछ मेरे मन में जन्म ले रहा है
जानती हूँ मैं नाकामयाब रही थी
ख़ुद को ज़ाहिर होने देने में
पर जाने क्यों अच्छा लगा कि
कुछ पल ही सही तुम मेरे साथ थे
जो महज़ फ़र्ज़ से बँधा
मुझे समझ रहा था!

- जेन्नी शबनम (25. 1. 2011)
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11 टिप्‍पणियां:

udaya veer singh ने कहा…

priy sabnam ji

namskar

abhivyaki sundar prayas .'tum samajh rhe ho meri pida --- ' antrman
ke bhav mukhar ho uthe hain .

mridula pradhan ने कहा…

वो सभी पल मुझपर क़र्ज़ से हैं,
जिन्हें मैं उतारना नहीं चाहती
bemisaal lekhan.

vandana gupta ने कहा…

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (27/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com

गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाइयाँ !!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

उस अग्नि से पूछना जब
मैं सुलग रही थी,
वो तपिश अग्नि की नहीं थी
तुम थे जो धीरे धीरे
मुझे पिघला रहे थे,

खूबसूरत अभिव्यक्ति



गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें...

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत मार्मिक और भावपूर्ण सुन्दर प्रस्तुति..

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत प्रेरणा देती हुई सुन्दर रचना ...
गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाइयाँ !!

Happy Republic Day.........Jai HIND

सहज साहित्य ने कहा…

"ओ मेरे हमदर्द...
तुम समझ रहे हो न मेरी पीड़ा
और जो कुछ मेरे मन में जन्म ले रहा है,
जानती हूँ मैं नाकामयाब रही थी
ख़ुद को ज़ाहिर होने देने में,
पर जाने क्यों अच्छा लगा कि
कुछ पल हीं सही
तुम मेरे साथ थे" इन पँक्तियों में हृदय की गहन -पीड़ा के साथ समर्पण-भाव का भी सुन्दर भावचित्र प्रस्तुत किया है ।

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत भावपूर्ण...बधाई.

बेनामी ने कहा…

सुन्दर रचना!
गणतन्त्र दिवस की 62वीं वर्षगाँठ पर
आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

***Punam*** ने कहा…

खूबसूरत ज़ज्बात...खूबसूरत अलफ़ाज़...

केवल राम ने कहा…

मेरे उन कमज़ोर पलों को विस्मृत न कर देना
भले याद न करना कि कोई ''शब'' जल रही थी,
तुम्हारी तपिश से कुछ पिघल रहा था मुझमें
और तुम उसे समेटने का फ़र्ज़ निभा रहे थे,
ओ मेरे हमदर्द...


आदरणीय जेन्नी शबनम जी
सादर प्रणाम
आपकी कविता में अनुभूत सत्य बहुत गहरे से मुखर हुए हैं ...पूरी कविता एक दृश्य हमारे सामने उपस्थित कर देती है ...इस कविता की शैली बहुत जबरदस्त है ....बिलकुल काव्य के अनुकूल ...शुक्रिया आपका