बाध्यता नहीं
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ये मेरी चाह थी कि तुम्हें चाहूँ और तुम मुझे
पर ये सिर्फ़ मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं।
- जेन्नी शबनम (9. 10. 2011)
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ये मेरी चाह थी कि तुम्हें चाहूँ और तुम मुझे
पर ये सिर्फ़ मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं।
- जेन्नी शबनम (9. 10. 2011)
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15 टिप्पणियां:
कम शब्दों में सब कुछ कह दिया..सुंदर पोस्ट मुझे पसंद आई...बधाई
"ये चाह थी मेरी कि
तुम्हें चाहूँ
और तुम मुझे,
पर
ये सिर्फ
मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं !"
अब इसके आगे क्या कहूँ....?
और चाहूँ भी तो क्या चाहूँ...??
रिश्तों में चाह ..हो सकती अहि पर चाहने की बाध्यता होना उचित नहीं...कम शब्दों में आपने सारी बात कह दी .
वाह, बहुत सुंदर ||
मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं !... फिर बाध्यता से परे मुझे ही खुश रहना है . कम शब्दों में गहरे एहसास
ये सिर्फ
मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं !"
वाह ..बहुत ही बढि़या ।
बहुत ही खुबसूरत.....
बहुत खूब ! कुछ शब्दों में बहुत कुछ कह दिया..
कम शब्द गहरे भाव.....
bahut khoob bahut kuch chipa hai in panktiyon me.
हर कोई अपनी चाह के लिए ही जीता है ... कम शब्दों में गहरी बात ...
वाह! आपकी चाहत बहुत खूबसूरत है.
बाध्यता के बंधन से मुक्त.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
आपके अमूल्य विचारों से मेरा मनोबल
बढ़ता है.
BHAWNA KO SHABD ME DHALNA;
NISSANDEH KUCHH KAHANE KO
MERE PAS SHABD NAHI HAI.
प्रेम के सात्विक रूप को कुछ ही शब्दों में भावपूर्ण आकार देने में आपकी क्षमता सराहनीय है जेन्नी जी । ये पंक्तियाँ बहुत प्रभाशाली हैं-
ये चाह थी मेरी कि
तुम्हें चाहूँ
और तुम मुझे,
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