गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

486. धृष्टता

धृष्टता

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जितनी बार तुमसे मिली 
ख़्वाहिशों ने जन्म लिया मुझमें  
जिन्हें यकीनन पूरा नहीं होना था  
मगर दिल कब मानता है?  
यह समझती थी
तुम अपने दायरे से बाहर न आओगे
फिर भी एक नज़र देखने की आरज़ू
और चुपके से तुम्हें देख लेती
नज़रें मिलाने से डरती
जाने क्यों खींचती हैं तुम्हारी नज़रें?
अब भी याद है
मेरी कविता पढ़ते हुए
उसमें ख़ुद को खोजने लगे थे तुम  
अपनी चोरी पकड़े जाने के डर से
तपाक से कह उठी मैं-
''पात्र को न खोजना''
फिर भी तुमने ख़ुद को खोज ही लिया उसमें
मेरी इस धृष्टता पर मुस्कुरा उठे तुम
और चुपके से बोले-
''प्रेम को बचा कर नहीं रखो''   
मैं कहना चाहती थी-
बचाना ही कब चाहती हूँ
तुम मिले जो न थे तो ख़र्च कैसे करती  
पर, कह पाना कठिन था  
शायद जीने से भी ज़्यादा
अब भी जानती हूँ 
महज़ शब्दों से गढ़े पात्र में तुम ख़ुद को देखते हो 
और बस इतना ही चाहते भी हो
उन शब्दों में जीती मैं को 
तुमने कभी नहीं देखा या देखना ही नहीं चाहा 
बस कहने को कह दिया था
फिर भी एक सुकून है
मेरी कविता का पात्र
एक बार अपने दायरे से बाहर आ
मुझे कुछ लम्हे दे गया था
।    

- जेन्नी शबनम (26. 2. 2015)
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शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

485. लम्हों का सफ़र (पुस्तक 89)

लम्हों का सफ़र 

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आसमान की विशालता  
जब अधीरता से खींचती है  
धरती की गूढ़ शिथिलता  
जब कठोरता से रोकती है  
सागर का हठीला मन
जब पर्वत से टकराता है  
तब एक आँधी
मानो अट्टहास करते हुए गुज़रती है  
कलेजे में नश्तर चुभता है   
नस-नस में लहू उत्पात मचाता है  
वक़्त का हर लम्हा, काँपता थरथराता   
ख़ुद को अपने बदन में नज़रबंद कर लेता है।    

मन हैरान है, मन परेशान है   
जीवन का अनवरत सफ़र
लम्हों का सफ़र
जाने कहाँ रुके, कब रुके  
जीवन के झंझावत, अब मेरा बलिदान माँगते हैं
मन न आह कहता है, न वाह कहता
कहीं कुछ है, जो मन में घुटता है
पल-पल मन में टूटता है
मन को क्रूरता से चीरता है।    

ठहरने की बेताबी, कहने की बेक़रारी
अपनाए न जाने की लाचारी
एक-एक कर, रास्ता बदलते हैं
हाथ की लकीर और माथे की लकीर
अपनी नाकामी पर
गलबहिया डाले, सिसकते हैं।    

आकाश और धरती
अब भावविहीन हैं
सागर और पर्वत चेतनाशून्य हैं
हम सब हारे हुए मुसाफ़िर
न एक दूसरे को ढाढ़स देते हैं
न किसी की राह के काँटे बीनते हैं
सब के पाँव के छाले
आपस में मूक संवाद करते हैं।    

अपने-अपने, लम्हों के सफ़र पर निकले हम
वक़्त को हाज़िर नाज़िर मानकर
अपने हर लम्हे को यहाँ दफ़न करते हैं   
चलो अब अपना सफ़र शुरू करते हैं।  

- जेन्नी शबनम (14. 2. 2015)
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मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

484. मन! तुम आज़ाद हो जाओगे

मन! तुम आज़ाद हो जाओगे  

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अक्स मेरा मन मुझसे उलझता है  
कहता है- 
वो सारे सच जिसे मन की तलहटी में  
जाने कब से छुपाया है मैंने  
जगज़ाहिर कर दूँ।  
चैन से सो नहीं पाता है वो
सारी चीख़ें, हर रात उसे रुलाती हैं
सारी पीड़ा भरभराकर  
हर रात उसके सीने पर गिर जाती हैं  
सारे रहस्य हर रात कुलबुलाते हैं
और बाहर आने को धक्का मारतें हैं    
इस जद्दोज़हद में गुज़रती हर रात  
यूँ लगता है 
मानो आज आख़िरी है।  
लेकिन सहर की धुन जब बजती है  
मेरा मन ख़ुद को ढाढ़स देता है
बस ज़रा-सा सब्र और कर लो
मुमकिन है एक रोज़ 
जीवन से शब बिदा हो जाएगी  
उस आख़िरी सहर में  
मन! तुम आज़ाद हो जाओगे।  

- जेन्नी शबनम (10. 2. 2015)
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गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

483. आँखें रोएँगी और हँसेंगे हम (तुकांत)

आँखें रोएँगी और हँसेंगे हम 

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इल्म न था इस क़दर टूटेंगे हम   
ये आँखें रोएँगी और हँसेंगे हम।    

सपनों की बातें सारी झूठी-मुठी
लेकिन कच्चे-पक्के सब बोएँगे हम।    

मालूम तो थी तेरी मग़रूरियत
पर तुझको चाहा कैसे भूलेंगे हम।    

तेरे लब की हँसी पे हम मिट गए
तुझसे कभी पर कह न पाएँगे हम।    

तुम शेर कहो हम ग़ज़ल कहें
ऐसी हसरत ख़ुद मिटाएँगे हम।    

तू जानता है पर ज़ख़्म भी देता है
तुझसे मिले दर्द से टूट जाएँगे हम।    

किसने कब-कब तोड़ा है 'शब' को
यह कहानी नही सुनाएँगे हम।   

- जेन्नी शबनम (5. 2. 2015) 
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गुरुवार, 15 जनवरी 2015

482. शुभ-शुभ (क्षणिका)

शुभ-शुभ

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हज़ारों उपाय, मन्नतें, टोटके 
अपनों ने किए ताकि अशुभ हो   
मगर ग़ैरों की बलाएँ, परायों की शुभकामनाएँ  
निःसंदेह कहीं तो जाकर लगती हैं 
वर्ना जीवन में शुभ-शुभ कहाँ से होता
।  

- जेन्नी शबनम (15. 1. 2015) 
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सोमवार, 5 जनवरी 2015

481. वक़्त बेख़ौफ़ चलता रहे

वक़्त बेख़ौफ़ चलता रहे 

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वक़्त साल-दर-साल, सदी-दर-सदी, युग-दर-युग
चलता रहा, बीतता रहा, टूटता रहा
कभी ग़म गाता, कभी मर्सिया पढ़ता
कभी ख़ौफ़ के चौराहे पर काँपता
कभी मासूम इन्सानी ख़ून से रँग जाने पर
असहाय ज़ार-ज़ार रोता
कभी पर्दानशीनों की कुचली नग्नता पर बिलखता
कभी हैवानियत से हारकर तड़पता। 

ओह! 
कितनी लाचारगी, कितनी बेबसी वक़्त झेलता है
फिर चल पड़ता है लड़खड़ाता, डगमगाता
चलना ही पड़ता है उसे, हर यातनाओं के बाद। 

नहीं मालूम, थका-हारा लहूलुहान वक़्त
चलते-चलते कहाँ पहुँचेगा
न पहला सिरा याद 
न अन्तिम का कोई निशान शेष
जहाँ ख़त्म हो क़ायनात
ताकि पलभर थमकर सुन्दर संसार की कल्पना में
वक़्त भर सके एक लम्बी साँस
और कहे उन सारे ख़ुदाओं से
जिनके दीवाने कभी आदमज़ाद हुए ही नहीं
कि ख़त्म कर दो यह खेल, मिटा दो सारा झमेला
न कोई दास, न कोई शासक
न कोई दाता, न कोई याचक
न धर्म का कारोबार, न कोई किसी का पैरोकार। 

इस ग्रह पर इन्सान की खेती मुमकिन नहीं   
न ही सम्भव है कोई कारगर उपाय 
एक प्रलय ला दो कि बन जाए यह पृथ्वी
उन ग्रहों की तरह, जहाँ जीवन के नामोनिशान नहीं
तब फिर से बसाओ यह धरती
उगाओ इन्सानी फ़सल
जिनके हों बस एक धर्म
जिनकी हो बस एक राह
सर्वत्र खिले फूल-ही-फूल 
चमकीले-चमकीले तारों जैसे
और वक़्त बेख़ौफ़ ठठाकर हँसता रहे  
संसार की सुन्दरता पर मचलता रहे 
झूमते-नाचते चलता रहे 
साल-दर-साल 
सदी-दर-सदी, युग-दर-युग। 

-जेन्नी शबनम (1.1.2015)
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शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

480. नूतन साल (नव वर्ष पर 7 हाइकु) पुस्तक 68,69

नूतन साल

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1. 
वक़्त सरका  
लम्हे भर को रुका   
यादें दे गया।  

2. 
फूल खिलेंगे  
तिथियों के बाग़ में   
ख़ुशबू देंगे।  

3. 
फुर्र से उड़ा 
थका पुराना साल  
नूतन आया।   

4. 
एक भी लम्हा 
हाथ में न ठहरा   
बीते साल का।  

5. 
मुझ-सा तू भी  
हो जाएगा अतीत,   
ओ नया साल।  

6. 
साल यूँ बीता 
मानो अपना कोई   
हमसे रूठा।  

7. 
हँसो या रोओ  
बीता पूरा बरस  
नए को देखो।  

- जेन्नी शबनम (1. 1. 2015)
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गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

479. एक सांता आ जाता

एक सांता आ जाता 

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मन चाहता  
भूले-भटके
मेरे लिए तोहफ़ा लिए
काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता।  

गहरी नींद से मुझे जगाकर 
अपनी झोली से निकालकर थमा देता
मेरे हाथों में परियों वाली जादू की छड़ी
और अलादीन वाला जादुई चिराग़। 

पूरे संसार को छू लेती
जादू की उस छड़ी से
और भर देती सबके मन में
प्यार-ही-प्यार, अपरम्पार। 

चिराग़ के जिन्न से कहती
पूरी दुनिया को दे दो 
कभी ख़त्म न होने वाला अनाज का भण्डार 
सबको दे दो रेशमी परिधान   
सबका घर बना दो राजमहल
न कोई राजा, न कोई रंक
फिर सब तरफ़ दिखेंगे ख़ुशियों के रंग।  

काश! आज मेरे घर 
एक सांता आ जाता

-जेन्नी शबनम (25.12.2014)
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गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

478. सपनों के झोले

सपनों के झोले  

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मुझे समेटते-समेटते    
एक दिन तुम बिखर जाओगे  
ढह जाएगी तुम्हारी दुनिया  
शून्यता का आकाश 
कर लेगा अपनी गिरफ़्त में तुम्हें  
चाहकर भी न जी सकोगे न मर सकोगे तुम, 
जानते हो
जैसे रेत का घरौंदा भरभराकर गिरता है  
एक झटके में  
कभी वैसे ही चकनाचूर हुआ सब  
अरमान भी और मेरा आसमान भी  
उफ़ के शब्द गले में ही अटके रह गए  
कराह की आवाज़ को आसमान ने गटक लिया  
और मैं ठंडी ओस-सी सब तरफ़ बिखर गई,  
जानती हूँ 
मेरे दर्द से कराहती तुम्हारी आँखें  
रब से क्या-क्या गुज़ारिश करती हैं    
सूनी ख़ामोश दीवारों पे 
तुम्हें कैसे मेरी तस्वीर नज़र आती है  
जाने कहाँ से रच लेते हो ऐसा संसार  
जहाँ मेरे अस्तित्व का एक कतरा भी नहीं  
मगर तुम्हारे लिए पूरी की पूरी मैं वहाँ होती हूँ,  
तुम चाहते हो  
बिंदास और बेबाक जीऊँ  
मर-मरकर नहीं जीकर जिन्दगी जीऊँ  
सारे इंतज़ाम तुम सँभालोगे, मैं बस ख़ुद को सँभालूँ  
शब्दों की लय से जीवन गीत गुनगुनाऊँ,  
बड़े भोले हो    
सपनों के झोले में जीवन समाते हो   
जान लो  
अरमान आसमान नहीं देते
बस भ्रम देते हैं।    

- जेन्नी शबनम (11. 12. 2014)  
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सोमवार, 1 दिसंबर 2014

477. झाँकती खिड़की (पुस्तक - 67)

झाँकती खिड़की

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परदे की ओट से
इस तरह झाँकती है खिड़की
मानो कोई देख न ले
मन में आस भी और चाहत भी
काश! कोई देख ले।

परदे में हीरे-मोती हो, या हो कई पैबन्द
हर परदे की यही ज़िंदगानी है
हर झाँकती नज़रों में वही चाह
कच्ची हो, कि पक्की हो
हर खिड़की की यही कहानी है।

कौन पूछता है, खिड़की की चाह
अनचाहा-सा कोई
धड़धड़ाता हुआ पल्ला ठेल देता है
खिड़की बाहर झाँकना बंद कर देती है
आस मर जाती है
बाहर एक लम्बी सड़क है
जहाँ आवागमन है, ज़िन्दगी है
पर, खिड़की झाँकने की सज़ा पाती है
अब वह न बाहर झाँकती है
न उम्र के आईने को ताकती है।

- जेन्नी शबनम (1. 12. 2014)
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गुरुवार, 27 नवंबर 2014

476. उम्र के छाले (12 हाइकु)

उम्र के छाले  

***

1.
उम्र की भट्टी 
अनुभव के भुट्टे 
मैंने पकाए। 

2.
जग ने दिया 
सुकरात-सा विष 
मैंने जो पिया। 

3.
मैंने उबाले 
इश्क़ की केतली में 
उम्र के छाले। 

4.
नहीं दिखता 
अमावस का चाँद, 
वो कैसा होगा? 

5.
कौन अपना? 
मैंने कभी न जाना 
वे मतलबी। 

6.
काँच से बना 
फिर भी मैंने तोड़ा 
अपना दिल। 

7.
फूल उगाना 
मन की देहरी पे 
मैंने न जाना। 

8.
कच्चे सपने 
रोज़ उड़ाए मैंने 
पास न डैने। 

9.
सपने पैने 
ज़ख़्म देते गहरे, 
मैंने ही छोड़े। 

10.
नहीं जलाया 
मैंने प्रीत का चूल्हा, 
ज़िन्दगी सीली। 

11.
मैंने जी लिया
जाने किसका हिस्सा 
क़र्ज़ का क़िस्सा। 

12.
मैंने ही बोई 
तजुर्बे की फ़सलें 
मैंने ही काटी। 

-जेन्नी शबनम(20.11.2014)
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गुरुवार, 20 नवंबर 2014

475. इंकार है

इंकार है 

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तूने कहा   
मैं चाँद हूँ   
और ख़ुद को आफ़ताब कहा।   

रफ़्ता-रफ़्ता   
मैं जलने लगी   
और तू बेमियाद बुझने लगा।   

जाने कब कैसे   
ग्रहण लगा   
और मुझमें दाग़ दिखने लगा।   

हौले-हौले ज़िन्दगी बढ़ी   
चुपके-चुपके उम्र ढली  
और फिर अमावस ठहर गया।   

कल का सहर बना क़हर   
जब एक नई चाँदनी खिली   
और फिर तू कहीं और उगने लगा।   

चंद लफ़्ज़ों में मैं हुई बेवतन   
दूजी चाँदनी को मिला वतन   
और तू आफ़ताब बन जीता रहा।   

हाँ, यह मालूम है   
तेरे मज़हब में ऐसा ही होता है   
पर आज तेरे मज़हब से ही नहीं   
तुझसे भी मुझे इंकार है।   

न मैं चाँद हूँ   
न तू आफ़ताब है   
मुझे इन सबसे इंकार है।   

- जेन्नी शबनम (20. 11. 2014) 
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सोमवार, 17 नवंबर 2014

474. कोई तो दिन होगा

कोई तो दिन होगा

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कोई तो दिन होगा 
जब गीत आज़ादी के गाऊँगी 
बीन बजाते भौंरे नाचेंगे 
मैं पराग-सी बिखर जाऊँगी  
आसमाँ में सूरज दमकेगा 
मैं चन्दा-सी सँवर जाऊँगी।  

कोई तो दिन होगा 
जब गीत ख़ुशी के गाऊँगी 
चिड़िया फुदकेगी डाल-डाल 
मैं तितली-सी उड़ जाऊँगी 
फूलों से बगिया महकेगी 
मैं शबनम-सी बिछ जाऊँगी। 

कोई तो दिन होगा 
जब गीत प्रीत के गाऊँगी 
प्रेम प्यार के पौध उपजेंगे 
मैं ज़र्रे-ज़र्रे में खिल जाऊँगी 
भोर सुहानी अगुवा होगी 
मैं आसमाँ पर चढ़ जाऊँगी। 

कोई तो दिन होगा 
जब गीत आनन्द के गाऊँगी 
यम बुलाने जब आएगा 
मैं हँसती-हँसती जाऊँगी 
कथा-कहानी जीवित रहेगी 
मैं अमर होकर मर जाऊँगी।

-जेन्नी शबनम (16.11.2014)
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शनिवार, 1 नवंबर 2014

473. तारों का बाग़ (दिवाली के 8 हाइकु) पुस्तक 66,67

तारों का बाग़  

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1.
तारों के गुच्छे 
ज़मीं पे छितराए 
मन लुभाए।  

2.
बिजली जली  
दीपों का दम टूटा  
दीवाली सजी। 

3.
तारों का बाग़ 
धरती पे बिखरा 
आज की रात।  
 
4.
दीप जलाओ 
प्रेम प्यार की रीत 
जी में बसाओ।  

5.
प्रदीप्त दीया  
मन का अमावस्या  
भगा न सका।  

6.
रात ने ओढ़ा  
आसमाँ का काजल  
दीवाली रात।  

7.
आतिशबाज़ी 
जुगनुओं की रैली  
तम बेचारा।  

8.
भगा न पाई 
दुनिया की दीवाली 
मन का तम।   

- जेन्नी शबनम ( 20. 10. 2014) 
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सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

472. कविता (कविता पर 20 हाइकु) पुस्तक 64-66

कविता 

*******

1. 
कण-कण में  
कविता सँवरती  
संस्कृति जीती। 

2.
अकथ्य भाव 
कविता पनपती 
खुलके जीती।  

3.
अक्सर रोती  
ग़ैरों का दर्द जीती, 
कविता-नारी। 

4.
अच्छी या बुरी, 
न करो आकलन 
मैं हूँ कविता। 

5.
ख़ुद से बात 
कविता का संवाद 
समझो बात। 

6.
शब्दों में जीती, 
अक्सर ही कविता 
लाचार होती। 

7.
कविता गूँजी, 
ख़बर है सुनाती 
शोर मचाती। 

8.
मन पे भारी 
समय की पलटी, 
कविता टूटी। 

9.
कविता देती   
गूँज प्रतिरोध की   
जन-मन में। 

10.
कविता देती 
सवालों के जवाब,  
मन में उठे। 

11.
ख़ुद में जीती  
ख़ुद से ही हारती,  
कविता गूँगी। 

12.
छाप छोड़ती,   
कविता जो गाती  
अंतर्मन में। 

13.
कविता रोती, 
पूरी कर अपेक्षा  
पाती उपेक्षा। 

14.
रोशनी देती  
कविता चमकती  
सूर्य-सी तेज़। 

15.
भाव अर्जित  
भाषा होती सर्जित  
कविता-रूप। 

16.
अंतःकरण 
ज्वालामुखी उगले  
कविता लावा। 

17. 
मन की पीर   
बस कविता जाने,  
शब्दों में बहे। 

18.
ख़ाक छानती 
मन में है झाँकती 
कविता आती। 

19.
शूल चुभाती  
नाज़ुक-सी कविता,   
क्रोधित होती। 

20.
आशा बँधाती 
जब निराशा छाती,  
कविता सखी। 

- जेन्नी शबनम (22. 8. 2014)
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शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

471. रंग-बेरंग

रंग

***

काजल थककर बोला-
मुझसे अब और न होगा 
नहीं छुपा सकता
उसकी आँखों का सूनापन,
बिंदिया सकुचा कर बोली-
चुक गई मैं उसे सँवारकर
अब न होगा मुझसे
नहीं छुपा सकती
उसके चेहरे की उदासी,
होंठों की लाली तड़पकर बोली-
मेरा काम अब हुआ फ़िजूल
कितनी भी गहरी लगूँ
अब नहीं सजा पाती 
उसके होंठों पर खिलती लाली,
सिन्दूर उदास मन से बोला-
मेरी निशानी हुई बेरंग
अब न होगा मुझसे
झूठ-मूठ का दिखावापन  
नाता ही जब टूटा उसका  
फिर रहा क्या औचित्य भला मेरा, 
सुनो!
बिन्दी-काजल-लिपिस्टिक लाल 
आओ चल चलें हम
अपने-अपने रंग लेकर उसके पास
जहाँ हम सच्चे-सच्चे जीएँ
जहाँ हमारे रंग गहरे-गहरे चढ़े
खिल जाएँ हम भी जी के जहाँ
विफल न हो हमारे प्रयास जहाँ
करनी न पड़े हमें कोई चाल वहाँ, 
हम रंग हैं
हम सजा सकते हैं 
पर रंगहीन जीवन में नहीं भर सकते
अपने रंग। 

- जेन्नी शबनम (11. 10. 2014)
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शनिवार, 27 सितंबर 2014

470. दूध-सी हैं लहरें (हाइगा लेखन का प्रथम प्रयास- 8 हाइगा)

दूध-सी हैं लहरें 
(हाइगा लेखन का प्रथम प्रयास- 8 हाइगा)

***

1. 
सूरज झाँका 
***
सूरज झाँका- 
सागर की आँखों में 
रूप सुहाना। 
1





















2. 
क़दमों के निशान 
***
मिट जाएँगे 
क़दमों के निशान,  
यही जीवन। 
2 (2)





































3. 
सागर नीला 
***
अद्भुत लीला-
दूध-सी हैं लहरें, 
सागर नीला। 
3





















4.
अथाह नीर 
***
अथाह नीर 
आसमाँ ने बहाई 
मन की पीर। 

4






















5.
सूरज लाल 
***
सूरज लाल 
सागर में उतरा 
देखने हाल। 

5






















6.
लहरें दौड़ी आईं 
***
पाँव चूमने 
लहरें दौड़ी आईं, 
मैं सकुचाई। 

6






































7.
उतर जाऊँ-
सागर में खो जाऊँ 
सागर सखा! 

7






















8.
बादल व सागर 
***
क्षितिज पर, 
बादल व सागर 
आलिंगनबद्ध। 

8























-जेन्नी शबनम (20.9.2014)
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शनिवार, 20 सितंबर 2014

469. सागर तीरे (30 हाइकु)

सागर तीरे 

***

1. 
दम तोड़ती 
भटकती लहरें 
सागर तीरे। 

2. 
सफ़ेद रथ 
बढ़ता बिना पथ 
रेत में गुम। 

3. 
उमंग-भरी 
लहरें मचलतीं  
क़हर ढातीं। 

4. 
लहरें दौड़ीं 
शिला से टकराई  
टूटी बिखरी। 

5. 
नभ या धरा 
किसका सीना बिंधा, 
बहते आँसू। 

6.  
पाँव चूमने 
लहरें दौड़ी आईं,  
मैं सकुचाई। 

7. 
टकराती हैं 
पर हारती नही,
लहरें योद्धा। 

8. 
बेचैनी बढ़ी 
चाँद पूरा जो उगा 
सागर नाचा। 

9. 
कोई न जाना, 
अच्छा किया मिटाके 
रेत पे नाम। 

10. 
फुफकारतीं 
पर काटती नहीं 
लहरें नाग। 

11. 
दिन व रात 
सागर जागता है,  
अनिद्रा रोगी।  

12. 
डराता नित्य 
दहाड़ता दौड़ता 
सागर दैत्य। 

13. 
बड़ा लुभातीं, 
लहरें करतीं ज्यों 
अठखेलियाँ। 

14.
उतर जाऊँ- 
सागर में खो जाऊँ,  
सागर सखा। 

15. 
बहती धारा 
झूमकर पुकारे 
बाँहें पसारे।

16. 
हाहाकारतीं  
साहिल से मिलतीं 
लहरें भोली। 

17. 
किसका शाप   
क्षणिक न विश्राम  
दिन या रात। 

18. 
फन उठाके 
बेतहाशा दौड़ता 
सागर-नाग। 

19. 
बेमक़सद 
दौड़ता ही रहता 
आवारा पानी। 

20. 
क्षितिज पर,  
बादल व सागर 
आलिंगन में। 

21.
सोचता होगा 
सागर जाने क्या-क्या 
कोई न जाने। 

22. 
सागर रोता 
कौन चुप कराता  
सगा न सखा। 

23
कभी-कभी तो   
घबराता ही होगा 
सागर का जी। 

24.
पानी का मेला 
हर तरफ़ रेला 
है मस्तमौला। 

25. 
जल की माया 
धरा व गगन की 
समेटे काया। 

26. 
अथाह नीर 
आसमाँ ने बहाई 
मन की पीर। 

27. 
मिट जाएँगे 
क़दमों के निशान,  
यही जीवन। 

28. 
अद्भुत लीला- 
दूध-सी हैं लहरें 
सागर नीला। 

29.  
सूरज झाँका- 
सागर की आँखों में 
रूप सुहाना। 

30. 
सूरज लाल 
सागर में उतरा 
देखने हाल। 

-जेन्नी शबनम (20.9.2014)
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शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

468. जीवन-बोध (शिक्षक दिवस पर 10 हाइकु) पुस्तक 60,61

जीवन-बोध 

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1.
गुरु से सीखा 
बिन अँगुली थामे  
जीवन-बोध।  

2.
बढ़ता तरु,  
माँ है प्रथम गुरु  
पाकर ज्ञान। 
  
3.
करता मन  
शत-शत नमन  
गुरु आपको।  

4.
खिले आखर   
भरा जीवन-रंग 
जो था बेरंग।   

5.
भरते मान  
पाते हैं अपमान, 
कैसा ये युग?  

6. 
ख़ुद से सीखा  
अनुभवों का पाठ  
जीवन गुरु।  

7.
थी नासमझ 
भाषा-बोली-समझ    
गुरु से पाई।   

8.
ज्ञान का तेज  
चहुँ ओर बिखेरे  
गुरु-दीपक।   

9.
प्रेरणा-पुष्प  
जीवन में खिलाते  
गुरु प्रेरक।   

10.
पसारा ज्ञान  
दूर भागा अज्ञान  
सद्गुणी गुरु।  

- जेन्नी शबनम (5. 9. 2014)
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गुरुवार, 4 सितंबर 2014

467. गाँव (गाँव पर 20 हाइकु)

गाँव 
 
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1.
माटी का तन  
माटी में ही खिलता  
जीवन जीता।  

2.
गोबर-पुती 
हर मौसम सहे 
झोपड़ी तनी।  

3.
अपनापन 
बस यहीं है जीता  
हमारा गाँव।  

4.
भण्डार भरा,  
प्रकृति का कुआँ    
दान में मिला।   

5.
गीत सुनाती 
गाँव की पगडंडी 
रोज़ बुलाती।  

6.
ज़िन्दगी ख़त्म, 
फूस की झोपड़ी से 
नदी का घाट।  

7.
चिरैया चुगे 
लहलहाते पौधे 
धान की बाली।  

8.
गाँव की मिट्टी 
सोंधी-सोंधी महकी 
बयार चली।  

9.
कभी न हारी 
धुँआँ-धुँआँ ज़िन्दगी 
गाँव की नारी।  

10.
रात अन्हार 
दिन सूर्य उजार, 
नहीं लाचार।  

11.
सुख के साथी
माटी और पसीना, 
भूख मिटाते।  

12.
भरे किसान  
खलिहान में खान,   
अनाज सोना।  

13.
किसान नाचे    
खेत लहलहाए,  
भदवा चढ़ा।  

14. 
कोठी में चन्दा   
पर ज़िन्दगी फंदा,  
क़र्ज़ में साँस।  

15.
छीने सपने 
गाँव की ख़ुशबू के 
बसा शहर।    

16.
परों को नोचा  
शहर की हवा ने  
घायल गाँव।  

17.
कुनमुनाती  
गुनगुनी-सी हवा 
फ़सल साथ।  

18. 
कच्ची माटी में  
जीवन का संगीत,  
गाँव की रीत।  

19. 
नैनों में भादो,  
बदरा जो न आए 
पौधे सुलगे।  

20.
हुआ विहान,  
बैल का जोड़ा बोला-  
सरेह चलो।   

- जेन्नी शबनम (2. 9. 2014) 
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