शनिवार, 28 जुलाई 2012

359. साढ़े तीन हाथ की धरती

साढ़े तीन हाथ की धरती

***

आकाश में उड़ते पंछी   
कटी-पतंगों की भाँति   
ज़मीन पर आ गिरते हैं। 
   
नरक के द्वार में बिना प्रवेश   
तेल की कड़ाह में जलना   
जाने किस जन्म का पाप   
इस जन्म में भोगना है। 
   
दीवार पर खूँटी से टँगी   
एक जोड़ा कठपुतली को   
जाने किस तमाशे का इन्तिज़ार है। 
   
ठहाके लगाती छवि   
और प्रसंशा में सौ-सौ सन्देश    
अनगिनत सवालों का   
बस एक मूक जवाब   
हौले-से मुस्कान है। 
   
उफ़! कोई कैसे समझे?   
अन्तरिक्ष से झाँककर देखा   
चाँद और पृथ्वी   
और उस जलती अग्नि को भी   
जो कभी पेट में जलती है   
तो कभी जिस्म को जलाती है। 
  
इस आग से पककर   
कहीं किसी कचरे के ढेर में   
नवजात का बिलबिलाना   
दोनों हाथों को बाँधकर   
किसी की उम्र की लकीरों से   
पाई-पाई का हिसाब खुरचना। 
   
ओह! तपस्या किस पर्वत पर?   
अट्टहास कानों तक पहुँच   
मन को उद्वेलित कर देता है   
टीस भी और क्रोध भी   
पर कृतघ्नता को बर्दाश्त करते हुए   
पार जाने का हिसाब-किताब   
मन को सालता है। 
   
आह! कौन है जो अडिग नहीं होता?   
साढ़े तीन हाथ की धरती   
बस आख़िरी इतना-सा ख़्वाब।    

-जेन्नी शबनम (28.7.2012) 
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गुरुवार, 26 जुलाई 2012

358. साझी कविता (पुस्तक- 40)

साझी कविता

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साझी कविता, रचते-रचते 
ज़िन्दगी के रंग को, साझा देखना
साझी चाह है, या साझी ज़रूरत?
साझे सरोकार भी हो सकते हैं 
और साझे सपने भी, मसलन 
प्रेम, सुख, समाज, नैतिकता, पाप, दंड, भूख, आत्मविश्वास 
और ऐसे ही अनगिनत-से मसले, 
जवाब साझे तो न होंगे
क्योंकि सवाल अलग-अलग होते हैं
हमारे परिवेश से संबद्ध 
जो हमारी नसों को उमेठते हैं 
और जन्म लेती है साझी कविता,
कविता लिखना एक कला है
जैसे कि ज़िन्दगी जीना  
और कला में हम भी बहुत माहिर हैं
कविता से बाहर भी  
और ज़िन्दगी के अंदर भी!

- जेन्नी शबनम (26. 7. 2012)
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मंगलवार, 24 जुलाई 2012

357. सात पल

सात पल

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मुट्ठी में वर्षों से बंद
वक़्त का हर एक लम्हा 
कब गिर पड़ा 
कुछ पता न चला 
महज़ सात पल रह गए 
क्योंकि उन पलों को
मैं हथेली की जीवन रेखा में 
नाखून से कुरेद-कुरेदकर 
ठूँस दी थी 
ताकि 
कोई भी बवंडर इसे छीन न सके, 
उन सात पलों में 
पहला पल 
जब मैंने ज़िन्दगी को देखा 
दूसरा
जब ज़िन्दगी ने मुझे अपनाया 
तीसरा 
जब ज़िन्दगी ने दूर चले जाने की ज़िद की
चौथा 
जब ज़िन्दगी मेरे शहर से बिना मिले लौट गई
पाँचवा  
जब ज़िन्दगी के शहर से मुझे लौटना पड़ा 
छठा 
जब ज़िन्दगी से वो सारे समझौते किए जो मुझे मंज़ूर न थे   
सातवाँ 
जब ज़िन्दगी को अलविदा कह दिया, 
अब कोई आठवाँ पल नहीं आएगा 
न रुकेगा मेरी लकीरों में 
न टिक पाएगा मेरी हथेली में 
क्योंकि मैं मुट्ठी बंद करना छोड़ दी हूँ। 

- जेन्नी शबनम (21. 7. 2012)
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रविवार, 22 जुलाई 2012

356. हरियाली तीज (तीज पर 5 हाइकु) पुस्तक- 23

हरियाली तीज 
(तीज पर 5 हाइकु)

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1.
शिव-सा वर
हर नारी की चाह
करती तीज

2.
मनाए है स्त्री 
हरितालिका तीज
पति चिरायु

3.
करे कामना- 
हो अखण्ड सुहाग 
मनाए तीज

4.
सावन आया
पीहर में रौनक 
उमड़ पड़ी 

5.
पेड़ों पे झूला  
सुहाना है मौसम 
खिला सावन 

- जेन्नी शबनम (22. 7. 2012)
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शनिवार, 14 जुलाई 2012

355. बनके प्रेम-घटा (4 सेदोका)

बनके प्रेम-घटा 
(4 सेदोका)

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1.
मन की पीड़ा 
बूँद-बूँद बरसी
बदरी से जा मिली  
तुम न आए 
साथ मेरे रो पड़ीं  
काली घनी घटाएँ !

2.
तुम भी मानो 
मानती है दुनिया-
ज़िन्दगी है नसीब
ठोकरें मिलीं  
गिर-गिर सँभली
ज़िन्दगी है अजीब !  

3.
एक पहेली 
उलझनों से भरी 
किससे पूछें हल ? 
ज़िन्दगी है क्या 
पूछ-पूछके हारे 
ज़िन्दगी है मुश्किल ! 

4.
ओ प्रियतम !
बनके प्रेम-घटा 
जीवन पे छा जाओ 
प्रेम की वर्षा 
निरंतर बरसे
जीवन में आ जाओ !

- जेन्नी शबनम (जुलाई 13, 2012)

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गुरुवार, 12 जुलाई 2012

354. जीवन-शास्त्र

जीवन-शास्त्र

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सुना है 
गति और परिवर्तन ज़िन्दगी है
और यह भी कि 
जिनमें विकास और क्रियाशीलता नहीं 
वो मृतप्राय हैं। 
 
फिर मैं?
मेरा परिवर्तन ज़िन्दगी क्यों नहीं था?
अब मैं स्थिर और मौन हूँ
मुझमें कोई रासायनिक परिवर्तन नहीं
और न गतिशील हूँ। 
   
सुना है 
अब मैं सभ्य-सुसंस्कृत हो गई हूँ  
सम्पूर्णता से ज़िन्दगी को भोग रही हूँ 
गुरुओं का मान रखा है। 

भौतिक परिवर्तन, रासायनिक परिवर्तन
कोई मंथन नहीं, कोई रहस्य नहीं
भौतिक, रासायनिक और सामाजिक शास्त्र 
जीवन-शास्त्र नहीं। 

-जेन्नी शबनम (12.7.2012)
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गुरुवार, 21 जून 2012

353. कासे कहे

कासे कहे

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मद्धिम लौ 
जुगनू ज्यों
वही सूरज
वही जीवन
सब रीता
पर बीता!
जीवन यही
रीत  यही
पीर पराई
भान नहीं
सब खोया 
मन रोया!
कठिन घड़ी
कैसे कटी
मन तड़पे  
कासे कहे
नहीं अपना 
सब पराया!
तनिक पूछो
क्यों चाहे
मूक पाखी
कोई साथी
एक बसेरा
कोई सहारा!

- जेन्नी शबनम (21. 6. 2012)
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रविवार, 17 जून 2012

352. ओ मेरे बाबा (पितृ-दिवस पर 5 हाइकु) पुस्तक - 22, 23

ओ मेरे बाबा 
(पितृ-दिवस पर 5 हाइकु)

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1.
ओ मेरे बाबा!
तुम हो गए स्वप्न 
छोड़ जो गए।

2.
बेटी का बाबा
गर साथ न छूटे  
देता हौसला।

3.
तोतली बोली 
जो बिटिया ने बोली 
निहाल बाबा।

4.
बाबा तो गए 
अब किससे रूठूँ
कौन मनाए?

5.
सिर पे छाँव
कोई भी हो मौसम  
बाबा आकाश।

- जेन्नी शबनम (17. 6. 2012)
(पितृ दिवस पर हाइकु)
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शुक्रवार, 15 जून 2012

351. मैं कहीं नहीं

मैं कहीं नहीं

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हर बार की तरह
निष्ठुर बन, फिर चले गए तुम
मुझे मेरे प्रश्नों में जलने के लिए छोड़ गए  
वो प्रश्न जिसके उत्तर तलाशती हुई मैं
एक बार जैसे नदी बन गई थी 
और बिरहा के आँसू, बरखा की बूंदों में लपेट-लपेटकर 
नदी में प्रवाहित कर रही थी
और ख़ुद से पूछती रही, क्या सिर्फ मैं दोषी हूँ?

क्या उस दिन मैंने कहा था कि 
चलो चलकर चखें उस झील के पानी को
जिसमें सुना है 
कभी किसी राजा ने अपनी प्रेमिका के संग 
ठिठुरते ठण्ड में स्नान किया था 
ताकि काया कंचन-सी हो जाए
और अनन्त काल तक वे चिर युवा रहें।  

वो पहला इशारा भी तुमने ही किया 
कि चलो चाँदनी को मुट्ठी में भर लें
क्या मालूम मुफ़लिसी के अँधेरों का 
जाने कब ज़िन्दगी में अँधियारा भर जाए
मुट्ठी खोल एक दूसरे के मुँह पर झोंक देंगे 
होठ ख़ामोश भी हो 
मगर आँखें तो देख सकेंगी एक झलक। 

और उस दिन भी तो तुम ही थे न
जिसने चुपके से कानों में कहा था-
''मैं हूँ न, मुझसे बाँट लिया करो अपना दर्द''
अपना दर्द भला कैसे बाँटती तुमसे
तुमने कभी ख़ुशी भी सुननी नहीं चाही 
क्योंकि मालूम था तुम्हें, मेरे जीवन का अमावस
जानती थी, तुमने कहने के लिए सिर्फ़ कहा था 
''मैं हूँ न'' मानने के लिए नहीं। 

एक दिन कहा था तुमने  
''वक़्त के साथ चलो''
मन में बहुत रंजिश है तुम्हारे लिए भी 
और वक़्त के लिए भी 
फिर भी चल रही हूँ वक़्त के साथ 
रोज़-रोज़ प्रतीक्षा की मियाद बढ़ाते रहे तुम
मेरे संवाद और संदेश फ़ुज़ूल होते गए 
वक़्त के साथ चलने का मेरा वादा, अब भी क़ायम है  
सवाल करना तुम ख़ुद से कभी  
कोई वादा कब तोड़ा मैंने?
वक़्त से बाहर कब गई भला?
क्या उस वक़्त, मैं वक़्त के साथ नहीं चली थी?

कितनी लंबी प्रतीक्षा
और फिर जब सुना ''मैं हूँ न'' 
उसके बाद ये सब कैसे
क्या सारी तहज़ीब भूल गए?
मेरे सँभलने तक रुक तो सकते थे 
या इतना कहकर जाते 
''मैं कहीं नहीं''
कम-से-कम प्रतीक्षा का अंत तो होता।  

तुम बेहतर जानते हो 
मेरी ज़िन्दगी तो तब भी थी, तुम्हारे ही साथ
अब भी है, तुम्हारे ही साथ
फ़र्क यह है कि तुम अब भी नहीं जानते मुझे  
और मैं, तुम्हें कतरा-कतरा जीने में 
सर्वस्व पी चुकी हूँ। 

- जेन्नी शबनम (10. 6. 2012)
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गुरुवार, 7 जून 2012

350. पाप-पुण्य

पाप-पुण्य

***

पाप-पुण्य के फ़ैसले का भार 
क्यों नहीं परमात्मा पर छोड़ते हो  
क्यों पाप-पुण्य की मान्य परिभाषाओं में उलझकर 
क्षण-क्षण जीवन व्यर्थ गँवाते हो
जबकि परमात्मा की सत्ता पर पूर्ण भरोसा करते हो।  

हर बार एक द्वन्द्व में उलझ जाते हो
और फिर अपने पक्ष की सत्यता को प्रमाणित करने 
कभी सत्ययुग, कभी त्रेता, कभी द्वापर तक पहुँच जाते हो 
जबकि कलयुगी प्रश्न तुम्हारे होते हैं  
और अपने मुताबिक़ पूर्व निर्धारित उत्तर देते हो। 

एक भटकती ज़िन्दगी बार-बार पुकारती है
बेबुनियाद सन्देहों और पूर्व नियोजित तर्क के साथ 
बहुत चतुराई से बच निकलना चाहते हो  
कभी सोचा कि पाप की परिधि में क्या-क्या हो सकते हैं
जिन्हें त्यागकर पुण्य कमा सकते हो। 

इतना सहज नहीं होता 
पाप-पुण्य का मूल्यांकन स्वयं करना 
किसी का पाप किसी और का पुण्य भी हो सकता है 
निश्चित ही पाप-पुण्य की कसौटी कर्त्तव्य पर टिकी है 
जिसे पाप माना, वास्तव में उससे पुण्य कमा सकते हो। 

-जेन्नी शबनम (7.6.2012)
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बुधवार, 6 जून 2012

349. पंचों का फ़ैसला

पंचों का फ़ैसला

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कुछ शब्द उन पंचों के समान
उच्च आसन पर बैठे हैं
जिनके फ़ैसले सदैव निष्पक्ष होने चाहिए
ऐसी मान्यता है। 
 
सामने कुछ अनसुलझे प्रश्न पड़े हैं, विचारार्थ
वादी-प्रतिवादी, कुछ सबूत, कुछ गवाह
सैकड़ों की संख्या में उद्वेलित भीड़। 
 
अंततः पंचों का फ़ैसला
निर्विवाद, निर्विरोध 
उन सबके विरुद्ध 
जिनके पास पैदा करने की शक्ति है
चाहे जिस्म हो या ज़मीन। 

फ़रमान-
बेदख़ल कर दो 
बाँट दो! काट दो! लूट लो!

- जेन्नी शबनम (6.6.2012)
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शुक्रवार, 1 जून 2012

348. आईने का भरोसा क्यों

आईने का भरोसा क्यों

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प्रतिबिम्ब अपना-सा दिखता नहीं   
फिर बार-बार क्यों देखना?   
आईने को तोड़ निकल आओ बाहर   
किसी भी मौसम को   
आईने के शिनाख़्त की ज़रूरत नहीं,   
कौन जानना चाहता है   
क्या-क्या बदलाव हुए?   
क्यों हुए?   
वक़्त की मार थी   
या अपना ही साया साथ छोड़ गया   
किसने मन को तोड़ा   
या सपनों को रौंद दिया,   
आईने की ग़ुलामी 
किसने सिखाई?   
क्यों सिखाई?   
जैसे-जैसे वक़्त ने मिज़ाज बदले   
तन बदलता रहा   
मौसम की अफ़रा-तफ़री   
मन की गुज़ारिश नहीं थी, 
फिर आईने का भरोसा क्यों?   

- जेन्नी शबनम (1. 6. 2012)
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सोमवार, 28 मई 2012

347. मुक्ति

मुक्ति 

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शेष है अब भी कुछ मुझमें   
जो बाधा है मुक्ति के लिए   
सबसे विमुख होकर भी   
स्वयं अपने आप से 
नहीं हो पा रही मुक्त।    

प्रतीक्षारत हूँ, शायद कोई दुःसाहस करे   
और भर दे मेरी शिराओं में खौलता रक्त    
जिसे स्वयं मैंने ही, बूँद-बूँद निचोड़ दिया था   
ताकि पार जा सकूँ हर अनुभूतियों से   
और हो सकूँ मुक्त। 
   
चाहती हूँ, कोई मुझे पराजित मान   
अपने जीत के दम्भ से   
एक बार फिर मुझसे युद्ध करे   
और मैं दिखा दूँ कि हारना मेरी स्वीकृति थी   
शक्तिहीनता नहीं   
मैंने झोंक दी थी अपनी सारी ऊर्जा   
ताकि निष्प्राण हो जाए मेरी आत्मा   
और हो सकूँ मुक्त।   

समझ गई हूँ   
पलायन से नहीं मिलती है मुक्ति   
न परास्त होने से मिलती है मुक्ति   
संघर्ष कितना भी हो पर   
जीवन-पथ पर चलकर   
पार करनी होती है, नियत अवधि   
तभी खुलता है द्वार और मिलती है मुक्ति।   

- जेन्नी शबनम (26. 5. 2012) 
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गुरुवार, 24 मई 2012

346. कभी न मानूँ (पुस्तक - 48)

कभी न मानूँ

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जी चाहता है, विद्रोह कर दूँ 
अबकी जो रूठूँ, कभी न मानूँ
मनाता तो यूँ भी नहीं कोई 
फिर भी बार-बार रूठती हूँ 
हर बार स्वयं ही मान जाती हूँ
जानती हूँ कि मेरा रूठना 
कोई भूचाल नहीं लाता 
न तो पर्वत को पिघलाता है 
न प्रकृति कर जोड़ती है 
न जीवन आह भरता है 
देह की सभी भंगिमाएँ
यथावत रहती हैं 
दुनिया सहज चलती है
मन रूठता है, मन टूटता है 
मन मनाता है, मन मानता है 
और ये सिर्फ़ मेरा मन जानता है 
हर बार रूठकर, ख़ुद को ढाढ़स देती हूँ 
कि शायद इस बार, किसी को फ़र्क पड़े 
और कोई आकार मनाए 
और मैं जानूँ कि मैं भी महत्वपूर्ण हूँ
पर अब नहीं 
अब तो यम से ही मानूँगी  
विद्रोह का बिगुल 
बज उठा है। 

- जेन्नी शबनम (24. 5. 2012)
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शनिवार, 12 मई 2012

345. कैसे बनूँ शायर

कैसे बनूँ शायर 

***

मैं नहीं हूँ शायर 
जो शब्दों को पिरोकर कोई ख़्वाब सजाऊँ
नज़्मों और ग़ज़लों में दुनिया बसाऊँ
मुझको नहीं दिखता, चाँद में महबूब
चाँद दिखता है यों जैसे रोटी हो गोल 
मैं नहीं हूँ शायर, जो बस गीत रचूँ   
दुनिया को भूल, प्रिय की बाहों को जन्नत कहूँ

मुझको दिखती है, ज़िन्दगी की लाचारियाँ 
पंक्तिबद्ध खड़ी दुश्वारियाँ 
क़त्ल होती कोख की बेटियाँ
सरेआम बिक जाती, मिट जाती माँ की दुलारियाँ
ख़ुद को महफ़ूज़ रखने में नाकामयाब कलियाँ
मुझे दिखता है, सूखे सीने से चिपका मासूम
और भूख से कराहती उसकी माँ
वैतरणी पार कराने के लिए क़र्ज़ में डूबा 
किसी बेवा का बेटा
और वह भी, जिसे आरक्षण नाम के दैत्य ने 
कल निगल लिया   
क्योंकि उसकी जाति, उसका अभिशाप थी  
और हरजाने में उसे अपनी ज़िन्दगी देनी पड़ी

कैसे सोचूँ कि एक दिन ज़िन्दगी  
सुनहरे रथ पर चलकर पाएगी, सपनों की मंज़िल   
जहाँ दुःख-दर्द से परे कोई संसार है
मुझे दिखता है, किसी बुज़ुर्ग की झुर्रियों में 
वक़्त की नाराज़गी का दंश  
अपने कोखजनों से मिले दुत्कार और निर्भरता का अवसाद
मुझे दिखता है, उनका अतीत और वर्तमान 
जो अक्सर मेरे वर्तमान और भविष्य में तब्दील हो जाता है

मन तो मेरा भी चाहता है
तुम्हारी तरह शायर बन जाऊँ 
प्रेम-गीत रचूँ और ज़िन्दगी बस प्रेम-ही-प्रेम हो  
पर तुम ही बताओ, कैसे लिखूँ तुम्हारी तरह शायरी 
तुमने तो प्रेम में हज़ारों नज़्में लिख डालीं   
प्रेम की पराकाष्ठा के गीत रच डाले 
निर्विरोध, अपना प्रेम-संसार बसा लिया
मैं किसके लिए लिखूँ प्रेम-गीत?
नहीं सहन होता बार-बार हारना, सपनों का टूटना 
छले जाने के बाद फिर से उम्मीद जगाना
डरावनी दुनिया को देखकर 
आँखें मूँद सो जाना और सुन्दर सपनों में खो जाना

मेरी ज़िन्दगी तो यही है 
लोमड़ी और गिद्धों की महफ़िल से बचने के उपाय ढूँढूँ 
अपने अस्तित्व के बचाव के लिए 
साम, दाम, दण्ड, भेद अपनाते हुए 
अपनी आत्मा को मारकर 
इस शरीर को जीवित रखने के उपक्रम में रोज़-रोज़ मरूँ
मैं शायर नहीं 
बन पाना मुमकिन भी नहीं  
तुम ही बताओ, कैसे बनूँ मैं शायर 
कैसे लिखूँ, प्रेम या ज़िन्दगी। 

- जेन्नी शबनम (12.5.2012)
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रविवार, 6 मई 2012

344. चाँद का दाग़ (क्षणिका)

चाँद का दाग़

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ऐ चाँद! तेरे माथे पर जो दाग़ है 
क्या मैंने तुम्हें मारा था? 
अम्मा कहती है- मैं बहुत शैतान थी 
और कुछ भी कर सकती थी। 

- जेन्नी शबनम (6. 5. 2012)
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बुधवार, 25 अप्रैल 2012

343. कोई एक चमत्कार

कोई एक चमत्कार 

*** 

ज़िन्दगी, सपने और हक़ीक़त   
हर वक़्त गुत्थम-गुत्था होते हैं   
साबित करने के लिए अपना-अपना वर्चस्व   
और हो जाते हैं लहूलुहान। 
   
इन सबके बीच 
हर बार ज़िन्दगी को हारते देखा है 
सपनों को टूटते देखा है   
हक़ीक़त को रोते देखा है  
हक़ीक़त का अट्टहास, ज़िन्दगी को दुत्कारता है   
सपनों की हार को चिढ़ाता है   
और फिर ख़ुद के ज़ख़्म से छटपटाता है
   
ज़िन्दगी है कि बेसाख़्ता नहीं भागती 
धीरे-धीरे ख़ुद को मिटाती है   
सपनों को रौंदती है   
हक़ीक़त से इत्तेफ़ाक रखती है   
फिर भी उम्मीद रखती है कि शायद 
कहीं किसी रोज़, कोई एक चमत्कार 
और वे सारे सपने पूरे हों, जो हक़ीक़त बन जाए 
फिर ज़िन्दगी पाँव पर नहीं चले 
आसमान में उड़ जाए
   
न किसी पीर-पैग़ंबर में ताक़त   
न किसी देवी-देवता में शक्ति   
न परमेश्वर के पुत्र में क़ुव्वत   
जो इनके जंग में मध्यस्थता कर, संधि करा सके   
और कहे कि जाओ तीनों साथ मिलकर रहो   
आपसी रंजिश से सिर्फ़ विफल होगे   
जाओ, ज़िन्दगी और सपने मिलकर   
ख़ुद अपनी हक़ीक़त बनाओ। 
   
इन सभी को देखता वक़्त, ठठाकर हँसता है   
बदलता नहीं कानून   
किसी के सपनों की ताबीर के लिए 
कोई संशोधन नहीं   
बस सज़ा मिल सकती है   
इनाम का कोई प्रावधान नहीं   
कुछ नहीं कर सकते तुम   
या तो जंग करो या पलायन   
सभी मेरे अधीन, बस एक मैं सर्वोच्च हूँ! 
  
सच है, सभी का गुमान   
कोई तोड़ सकता है   
तो वह वक़्त है!   

-जेन्नी शबनम (25.4.2012) 
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शनिवार, 21 अप्रैल 2012

342. कोई हिस्सेदारी नहीं

कोई हिस्सेदारी नहीं

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मेरे सारे तर्क 
कैसे एक बार में एक झटके से 
ख़ारिज कर देते हो 
और कहते कि तुम्हें समझ नहीं,
जाने कैसे 
अर्थहीन हो जाता है मेरा जीवन 
जबकि परस्पर 
हर हिस्सेदारी बराबर होती है,
सपने देखना और जीना 
साथ ही तो शुरू हुआ 
रास्ते के हर पड़ाव भी साथ मिले 
साथ ही हर तूफ़ान को झेला 
जब भी हौसले पस्त हुए 
एक दूसरे को सहारा दिया,
अब ऐसा क्यों 
कि मेरी सारी साझेदारी बोझ बन गई 
मैं एक नाकाम 
जिसे न कोई शऊर है न तमीज़ 
जिसका होना, तुम्हारे लिए 
शायद ज़िन्दगी की सबसे बड़ी भूल है,
बहरहाल 
ज़िन्दगी है 
सपने हैं 
शिकवे हैं 
पंख है 
परवाज़ है 
मगर अब हमारे बीच 
कोई हिस्सेदारी नहीं!

- जेन्नी शबनम (21. 4. 2012)
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बुधवार, 18 अप्रैल 2012

341. अंतिम परिणति

अंतिम परिणति

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बाबू! तुम दूर जो गए
सपनों से भी रूठ गए
कर जोड़ गुहार मेरी
तनिक न ली सुध मेरी
लोर बहते नहीं अकारण
जानते हो तुम भी कारण
हर घड़ी है अंतिम पल
जाने कब रुके समय-क्रम।  

बाबू! तुम क्यों नही समझते
पीर मेरी जो मन दुखाते
तुम्हारे जाने यही उचित
पर मेरा मन करता भ्रमित
एक बार तुम आ जाना
सपने मेरे तुम ले आना
तुम्हारी प्रीत मन में बसी
भले जाओ तुम रहो कहीं। 

बाबू! देखो जीवन मेरा
छवि मेरी छाया तुम्हारा
संग-संग भले हैं दिखते
छाया को भला कैसे छूते
दर्पण देख ये भान होता
नहीं विशेष जो तुम्हें खींचता
बिछोह-रुदन बन गई नियति
प्रेम-कथा की अंतिम परिणति!

- जेन्नी शबनम (16. 4. 2012)
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रविवार, 15 अप्रैल 2012

340. आम आदमी के हिस्से में

आम आदमी के हिस्से में

***

सच है
पेट के आगे हर भूख कम पड़ जाती है
चाहे मन की हो या तन की
यह भी सच है
इश्क़ करता, तो यह सब कहाँ कर पाता
इश्क़ में कितने दिन ख़ुद को ज़िन्दा रख पाता
वक़्त से थका-हारा, दिन भर पसली घिसता
रोटी जुटाए या दिल में फूल उपजाए 
देह में जान कहाँ बचती
जो इश्क़ फ़रमाए
सच है, आम आदमी के हिस्से में
इश्क़ भी नहीं!

- जेन्नी शबनम (15.4.2012)
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गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

339. बेसब्र इन्तिज़ार (क्षणिका)

बेसब्र इन्तिज़ार 

***

कितने सपने, कितने इम्तिहान
अगले जन्म का बेसब्र इन्तिज़ार
कमबख़्त ये जन्म तो ख़त्म हो। 

-जेन्नी शबनम (12.4.2012)
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शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

338. फूल कुमारी उदास है (पुस्तक - 72)

फूल कुमारी उदास है

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एक था राजा एक थी रानी
उसकी बेटी थी फूल कुमारी
फूल कुमारी जब उदास होती...
पढ़ते सुनते, बरस बीत गए
कहानी में, फूल कुमारी उदास होती है
और फिर उसकी हँसी लौट आती है,
सच की दुनिया में
फूल कुमारी की उदासी
आज भी क़ायम है
कोई नहीं आता जो उसकी हँसी लौटाए,
कहानी की फूल कुमारी को हँसाने के लिए
समस्त प्रदेश तत्पर है
फूल कुमारी की हँसी में देश की हँसी शामिल है
फूल कुमारी की उदासी से
पेड़-पौधे भी उदास हो जाते हैं
जीव-जंतु भी और समस्त प्रजा भी,
वक़्त ने करवट ली
दुनिया बदल गई
हँसाने वाले रोबोट आ गए
पर एक वो मसख़रा न आया
जो उस फूलकुमारी की तरह हँसा जाए,
कहानी वाला मसख़रा
क्यों जन्म नहीं लेता?
आख़िर कब तक फूल कुमारी उदास रहेगी
कब तक राजा रानी
अपनी फूलकुमारी के लिए उदास रहेंगे,
अब की फूलकुमारी, उदास होती है तो
कोई और दुखी नहीं होता
न कोई हँसाने की चेष्टा करता है,
सच है, कहानी सिर्फ़ पढ़ने के लिए होती है
जीवन में नहीं उतरती
कहानी कहानी है
ज़िन्दगी ज़िन्दगी!
कहानी की फूलकुमारी
ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ से गढ़ी गई थी
जिसके जीवन की घटनाएँ 
मनमाफ़िक मोड़ लेती हैं,
साँस लेती हाड़ मांस की फूलकुमारी
जिसके लिए पूर्व निर्धारित मानदंड हैं
जिसके वश में न हँसना है न उदास होना
न उम्मीद रखना
उसकी उदासी की परवाह कोई नहीं करता,
फूल कुमारी उदास थी
फूल कुमारी उदास है!

- जेन्नी शबनम (2. 4. 2012)
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सोमवार, 2 अप्रैल 2012

337. तुम्हारा तिलिस्म

तुम्हारा तिलिस्म

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धुँध छट गई है
मौसम में फगुनाहट घुल गई है

आँखों में सपने मचल रहे हैं
रगों में हलकी तपिश महसूस हो रही है
जाने क्या हुआ है
पर कुछ तो हुआ है
जब भी थामा तुमने मैं मदहोश हो गई
नहीं मालूम कब
तुम्हारे आलिंगन की चाह ने
मुझमें जन्म लिया
और अब ख़यालों को
सूरत में बदलते देख रही हूँ
शब्द सदा की तरह अब भी मौन हैं
नहीं मालूम अनकहा तुम समझ पाते हो या नहीं
जाने तुमने मेरे मन को जाना या नहीं
या मैं सिर्फ़ बदन बन पाई तुम्हारे लिए
क्या जाने वक़्त की जादूगरी है
या तुम्हारा तिलिस्म
स्वीकार है मुझे
चाहे जिस रूप में तुम चाहो मुझे। 

- जेन्नी शबनम (1. 4. 2012)
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बुधवार, 28 मार्च 2012

336. तेरे ख़यालों के साथ रहना है

तेरे ख़यालों के साथ रहना है

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खिली-खिली-सी चाँदनी में 
तेरे लम्स की सरगोशी
न कुछ कहना है न कुछ सुनना है
शब भर आज तेरे ख़यालों के साथ रहना है।  

तेरी साँसों को छूकर गई हवा
मेरी साँसों में घुलती रही
पल में जीना है पल में मरना है
मुद्दतों का फ़ासला पल में तय करना है।  

तेरे होठों की मुस्कुराहट में
तेरी आँखों की शरारत में
कभी खिलना है कभी तिरना है
अपने सीने में तेरी यादों को भरना है।  

नस-नस में मचलती है
तेरे आने की जो ख़ुशबू है
कभी बहकना है कभी थमना है
मेरे आशियाँ में बहारों को रुकना है।  

तू अपनी नज़र से न देख
मेरे ज़ीस्त की दुश्वारियाँ
ज़ख़्म बहुत गहरा है बहुत सहना है
'शब' के दिल में हर दर्द को बसना है।  

- जेन्नी शबनम (26. 3. 2012)
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सोमवार, 26 मार्च 2012

335. शब्द-महिमा (शब्द पर 10 ताँका)

शब्द-महिमा
(शब्द पर 10 ताँका)

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1.
प्रेम-चाशनी
शब्द को पकाकर
सबको बाँटो,
सब छूट जाएगा
ये याद दिलाएगा। 

2.
शब्दों ने तोड़ी
सम्बन्धों की मर्यादा
रिश्ते भी टूटे,
यत्न से लगी गाँठ
मन न जुड़ पाया। 

3.
तुमसे जाना
शब्दों की वाचालता,
मूक-बधिर
बस एक उपाय
मन यही सुझाए। 

4.
शब्द-जाल ने
बहुत उलझाया
जन-समूह 
अब नेता को जाना-
कितना भरमाया। 

5.
शब्द-महिमा
ऋषियों ने थी मानी,
दिया सन्देश
ग्रन्थों में उपदेश
शब्द नहीं अशेष। 

6.
सरल शब्द
सहज अभिव्यक्ति
भाव गम्भीर,
उत्तेजित भाषण
खरोंच की लकीर। 

7.
प्रेम व पीर
अपने व पराये
शब्द के खेल,
मन के द्वार खोलो
शब्द तौलो तो बोलो। 

8.
शब्दों के शूल
कर देते छलनी
कोमल मन,
निरर्थक जतन
अपने होते दूर। 

9.
अपार शब्द
कराहते ही रहे,
कौन समझे
निहित भाषा-भाव
नासमझ इन्सान। 

10.
बिना शब्द के
अभिव्यक्ति कठिन
सबने माना,
मूक सम्प्रेषण है
बिना शब्दों की भाषा। 

-जेन्नी शबनम (16.3.2012)
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रविवार, 25 मार्च 2012

334. परवाह (क्षणिका)

परवाह

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कई बार प्रेम के रिश्ते फाँस-से चुभते हैं
इसलिए नहीं कि रिश्ते ने दर्द दिया
इसलिए कि रिश्ते ने परवाह नहीं की
और प्रेम की आधारशिला परवाह होती है। 

- जेन्नी शबनम (22. 3. 2012)
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बुधवार, 21 मार्च 2012

333. कवच

कवच

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सच ही कहते हो
हम सभी का अपना-अपना कवच है
जिसका निर्माण हम ख़ुद करते हैं, स्वेच्छा से
जिसके भीतर हम ख़ुद को क़ैद किए होते हैं, आदत से। 

धीरे-धीरे यह कवच पहचान बन जाती है
और उस पहचान के साथ
स्वयं का मान-अपमान जुड़ जाता है। 

शायद इस कवच के बाहर हमारी दुनिया कुछ भी नही
किसी सुरक्षा के घेरे में
बेहिचक जोखिम उठाना कठिन नहीं
क्योंकि यह पहचान होती है एक उद्घोष की तरह
आओ और मुझे परखो
उसी तराज़ू पर तौलो, जिस पर खरे होने की
तमाम गुंजाइश है। 

- जेन्नी शबनम (21.3.2012)
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शनिवार, 17 मार्च 2012

332. वक़्त की आख़िरी गठरी (क्षणिका)

वक़्त की आख़िरी गठरी

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लफ़्ज़ की सरगोशी, जिस्म की मदहोशी
यूँ जैसे 
साँसों की रफ़्तार घटती रही
एक-एक को चुनकर, हर एक को तोड़ती रही
सपनों की गिनती फिर भी न ख़त्म हुई
ज़िद की बात नहीं, न चाहतों की बात है
पहरों में घिरी रही 'शब' की हर पहर-घड़ी
मलाल कुछ इस क़दर जैसे
मुट्ठी में कसती गई वक़्त की आख़िरी गठरी। 

- जेन्नी शबनम (16. 3. 2012)
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गुरुवार, 15 मार्च 2012

331. चुप सी गुफ़्तगू

चुप सी गुफ़्तगू

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एक चुप-सी दुपहरी में
एक चुप-सी गुफ़्तगू हुई
न तख्तों-ताज 
न मसर्रत
न सुख़नवर की बात हुई
कफ़स में क़ैद संगदिल हमसुखन
और महफ़िल सजाने की बात हुई
बंद दरीचे में
नफ़स-नफ़स मुंतज़िर
और फ़लक पाने की बात हुई
साथ-साथ चलते रहे
क़ुर्बतों के ख़्वाब देखते रहे
मगर फ़ासले बढ़ाने की बात हुई
एक चुप-सी दोपहरी में
एक चुप-सी गुफ़्तगू हुई। 
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मसर्रत - आनंद
नफ़स - साँस
मुंतजिर - प्रतीक्षित
कुर्बतों - नज़दीकी
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- जेन्नी शबनम (14. 3. 2012)
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मंगलवार, 13 मार्च 2012

330. तुम क्या जानो (तुकांत)

तुम क्या जानो

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हिज्र की रातें तुम क्या जानो
वस्ल की बातें तुम क्या जानो।  

थी लिखी कहानी जीत की हमने
क्यों मिल गई मातें तुम क्या जानो। 

था हाथ जो थामा क्या था मन में
जो पाई घातें तुम क्या जानो। 

न कोई रिश्ता यही है रिश्ता
ये रूह के नाते तुम क्या जानो। 

तय किए सब फ़ासले वक़्त के
क्यों हारी हसरतें तुम क्या जानो। 

'शब' की आज़माइश जाने कब तक
उसकी मन्नतें तुम क्या जानो। 

- जेन्नी शबनम (11. 3. 2012)
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गुरुवार, 8 मार्च 2012

329. मैं स्त्री हो गई (पुस्तक - 77)

मैं स्त्री हो गई

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विजातीय से प्रेम किया
अपनी जात से मुझे निष्काषित कर दिया गया,
मैं कुलटा हो गई;
अपने धर्म के बाहर प्रेम किया
अधर्मी घोषित कर मुझे बेदख़ल कर दिया गया,
मैं अपवित्र हो गई;
सजातीय से प्रेम किया
रिश्तों की मुहर लगा मुझे बंदी बना दिया गया,
मैं पापी हो गई;
किसी ने, न कहा, न समझा
मैंने तो एक पुरुष से
बस प्रेम किया
और मैं स्त्री हो गई। 

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2012)
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सोमवार, 5 मार्च 2012

328. होली आई रे (होली पर 10 हाइकु) पुस्तक - 21, 22

होली आई रे
(होली पर 10 हाइकु)

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1. 
रंग-अबीर
मन हुआ अधीर
होली खेलो रे

2. 
फगुआ-पर्व
घर पाहुन आए 
मन चंचल

3. 
भंग-तरंग
इन्द्रधनुषी रंग
सब तरफ़

4. 
फगुआ मन
अंग-अंग में रंग
होली आई रे

5. 
होली त्योहार 
भेद-भाव मिटाए
मन मिलाए

6. 
अंग-अंग में
फगुनाहट छाए 
मनवा नाचे

7. 
घर है सूना
परदेसी सजना
होली रुलाए

8. 
कैसे मनाएँ 
है मन तड़पाए
पी बिन होली

9. 
तुम्हारे बिना
कैसे मनाऊँ होली
न जाओ पिया

10. 
बैरन होली
क्यों पिया बिन आए 
तीर चुभाए

- जेन्नी शबनम (5. 3. 2012)
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शनिवार, 3 मार्च 2012

327. ऐसा वास्ता रखना (तुकांत)

ऐसा वास्ता रखना

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हमारे दरम्यान इतना फ़ासला रखना
बसर हो सकें रिश्ते ऐसा वास्ता रखना।  

लरजते आँसुओं के शबनमी बयाँ
दोस्तों की महफ़िल से बचा रखना।  

काँटों से बचाके दामन हम आएँगे  
वस्ल की शाम अधूरी बहला रखना। 

कारवाँ थम जाए जो तूफ़ान से कहीं
ख़यालों की एक बस्ती सजा रखना। 

बेमुरव्वत दुनिया की फ़िक्र कौन करे
मेरे वास्ते ज़िन्दगी का आसरा रखना। 

सवाल पूछ ग़ैरों के सामने शर्मिंदा न करना
मेरे ज़ीस्त की नादानियों को छिपा रखना।  

'शब' को मिल जाए अँधेरों से निज़ात
दिल में एक चराग तुम जला रखना। 

- जेन्नी शबनम (3.3. 2012)
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बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

326. जा तुझे इश्क़ हो

जा तुझे इश्क़ हो

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तुम्हें आँसू नहीं पसन्द    
चाहे मेरी आँखों के हों   
या किसी और के   
चाहते हो, हँसती ही रहूँ   
भले ही वेदना से मन भरा हो। 
   
जानती हूँ और चाहती भी हूँ   
तुम्हारे सामने तटस्थ रहूँ   
अपनी मनोदशा व्यक्त न करूँ  
लेकिन तुमसे बातें करते-करते   
आँखों में आँसू भर आते हैं   
हर दर्द रिसने लगता है। 
   
मालूम है मुझे   
तुम्हारी सीमाएँ, तुम्हारा स्वभाव   
और तुम्हारी आदतें  
अक्सर सोचती हूँ   
कैसे इतने सहज होते हो   
फ़िक्रमन्द भी हो और   
बिन्दास हँसते भी रहते हो। 
   
कई बार महसूस किया है   
मेरे दर्द से तुम्हें आहत होते हुए   
देखा है तुम्हें, मुझे राहत देने के लिए   
कई उपक्रम करते हुए। 
  
समझाते हो मुझे अक्सर     
इश्क़ से बेहतर है दुनियादारी   
और हर बार मैं इश्क़ के पक्ष में होती हूँ   
और तुम हर बार अपने तर्क पर क़ायम। 
   
ज़िन्दगी को तुम अपनी शर्तों से जीते हो   
इश्क़ से बहुत दूर रहते हो   
या फिर इश्क़ हो न जाए   
शायद इस बात से डरे रहते हो। 
   
मुमकिन है 
तुम्हें इश्क़ वैसे ही नापसन्द हो, जैसे आँसू  
ग़ैरों के दर्द को महसूस करना और बात है   
दर्द को ख़ुद जीना और बात। 
   
एक बार तुम भी जी लो, मेरी ज़िन्दगी   
जी चाहता है 
तुम्हें शाप दे ही दूँ-   
''जा तुझे इश्क़ हो!" 

-जेन्नी शबनम (29.2.2012) 
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बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

325. भूमिका

भूमिका

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नेपथ्य से आई धीमी पुकार
जाने किसने पुकारा मेरा नाम
मंच पर घिरी हूँ, उन सभी के बीच
जो मुझसे सम्बद्ध हैं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
अपने में तल्लीन, मैं अपनी भूमिका निभा रही हूँ
कण्ठस्थ संवाद दुहरा रही हूँ। 

फिर ये कैसा व्यवधान?
किसकी है ये पुकार?
कोई नहीं दिखता 
नेपथ्य में अँधियारा, थोड़ी दूरी पर थोड़ा उजाला
घुटनों में मुँह छुपाए कोई छाया
स्वयं को बिसराकर, अज्ञात पथ पर चलकर
मंच तक पहुँची थी मैं 
उसे छोड़ आई थी, कब का भूल आई थी। 

कितनी पीड़ा थी
अपने अस्तित्व को खोने की व्यथा थी
बार-बार मुझे पुकारती थी
दर्शकों के शोर में उसकी पुकार दब जाती थी। 

मंच की जगमगाहट में उसका अन्धेरा और गहराता था
पर वह हारी नहीं
सालों-साल अनवरत पुकारती रही
कभी तो मैं सुन लूँगी, वापास आ जाऊँगी। 

कुछ भी विस्मृत नहीं, हर क्षण स्मरण था मुझे
उसके लिए कोई मंच नहीं
न उसके लिए कोई संवाद
न दर्शक बन जाने की पात्रता
ठहर जाना ही एकमात्र आदेश। 

उसकी विवशता थी और जाना पड़ा था दूर
अपने लिए पथ ढूँढना पड़ा था मुझे
मेरे लिए भी अकथ्य आदेश
मंच पर ही जीवन शेष
मेरे बिना अपूर्ण मंच, ले आई उसे भी संग। 

अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता, एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए। 

- जेन्नी शबनम (21.2.2012)
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