शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

688. साथी (चार लाइन की भावाभिव्यक्तियाँ) (12 क्षणिका)

साथी 

******* 

1. 
साथी 
***
मेरे साथी! तुम तब थे कहाँ   
ज़ख़्मों से जब हम थे घायल हुए   
इक तीर था निशाने पे लगा   
तन-मन मेरा जब ज़ख़्मी हुआ।  

2.
एहसान 
***
उम्र भर चले जलती धूप में   
पाँव के छाले अब क़दम है रोके   
कभी जो छाँव कोई, दमभर मिली   
तुम कहते कि एहसान तेरा हुआ।       

3. 
तू कहाँ था 
***
ख़्वाहिशों की लम्बी क़तारें थीं   
फफोले-से सपने फूटते रहे   
जब दर्द पर मेरे हँसती थी दुनिया   
तू कहाँ था, मेरे साथी बता।     

4. 
पराया 
***
जब भटकते रहे थे हम दरबदर   
मंदिर-मस्जिद सब हमसे बेख़बर   
घाव पर नमक छिड़कती थी दुनिया   
मेरा दर्द भला क्यों पराया हुआ।     

5.
मेरे हिस्से 
*** 
फूल और खार दोनों बिछे थे   
सारे खार क्यों मेरे हिस्से   
दुखती रगों को छेड़कर तुमने   
हँसके थे सुनाए मेरे क़िस्से।     

6. 
कुछ न जीता 
***
लो अब ये कहानी ख़त्म हो गई   
ज़िन्दगी अब नाफ़रमानी हो गई   
गर वापस तुम आओ तो देखना   
हम तो हारे, तुमने भी कुछ न जीता।   

7.
सौदा 
*** 
सीले-सीले से जीवन में नहीं रौशनी   
चाँद और सूरज भी तो तेरा ही था   
शब के रातों की नमी मेरी तक़दीर   
उजालों का सौदा तुमने ही किया।     

8. 
लाज 
***
नफ़रतों की दीवार गहरी हुई   
ढह न सकी, उम्र भले ठिठकी रही   
हो सके तो एक सुराख़ करना   
ज़माने की ख़ातिर लाज रखना।     

9. 
हम थे कहाँ 
***
जब-जब जीवन से हारती रही   
आँखें तुमको ही ढूँढती रही   
अपनी दुनिया में उलझे रहे तुम   
बता तेरी दुनिया में हम थे कहाँ।     

10.
आँसू 
*** 
शब के आँसू आसमाँ के आँसू   
दिन के आँसू ये किसने भरे   
धुँधली नज़रें किसकी मेहरबानी   
कभी तो पूछते तुम अपनी ज़बानी।     

11. 
उदासी
***
दरम्याने-ज़िन्दगी ये कैसा वक़्त आया है   
ज़िन्दगी की तड़प भी और मौत की चाहत है   
लफ्ज़-लफ्ज़ बिखरे हुए, अधरों पर ख़ामोशी है   
ज्यों छिन रही हो ज़िन्दगी, मन में यूँ उदासी है।     

12.
अलविदा 
*** 
अब जो लौटो तुम तो हम क्या करें   
ज़ख़्म सारे रिस-रिस के अब नासूर बने   
तेरे क़र्ज़ के तले है जीवन बीता   
ऐ साथी मिलेंगे कभी अलविदा-अलविदा।  

- जेन्नी शबनम (10. 10. 2020) 
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शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

687. बापू हमारे (बापू पर 10 हाइकु)

बापू हमारे 


******* 


1.

एक सिपाही   

अंग्रेज़ो पर भारी,   

मिला स्वराज।


2.

देश की शान   

जन-जन के प्यारे   

बापू हमारे।


3.

क़त्ल हो गया   

अहिंसा का पुजारी,   

अभागे हम।


4.

बापू का मान   

हमारा अभिमान,   

अब तो मानो।


5.

अस्सी थी उम्र,   

अंग्रेज़ो को भगाया   

निडर काया।


6.

मिली आज़ादी   

साथ मिला संताप   

शोक में बापू।


7.

माटी का पूत   

माटी में मिल गया   

दिला के जीत। (बापू)


8.

निहत्था लड़ा   

अस्सी साल का बूढ़ा,   

कभी  हारा। (बापू)


9.

अकेला बढ़ा   

कारवाँ साथ चला   

आख़िर जीता। (बापू)


10.

सादा जीवन   

कड़ा अनुशासन   

बापू की सीख।


- जेन्नी शबनम (2. 10. 2020)

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सोमवार, 21 सितंबर 2020

686. अल्ज़ाइमर

अल्ज़ाइमर 

*** 

सड़क पर से गुज़रती हुई   
जाने मैं किधर खो गई    
घर, रास्ता, मंज़िल सब अनचीन्हा-सा है  
मैं बदल गई हूँ या दुनिया बदल गई है।
   
धीरे-धीरे सब विस्मृत हो रहा है   
मस्तिष्क साथ छोड़ रहा है   
या मैं मस्तिष्क की उँगली छोड़ रही हूँ। 
  
कुछ भूल जाती हूँ, तो अपनों की झिड़की सुनती हूँ   
सब कहते, मैं भूलने का नाटक करती हूँ   
कुछ भूल न जाऊँ, लिख-लिखकर रखती हूँ   
सारे जतन के बाद भी अक्सर भूल जाती हूँ   
अपने भूलने से मैं सहमी रहती हूँ   
अपनी पहचान खोने के डर से डरी रहती हूँ।
   
क्यों सब कुछ भूलती हूँ, मैं पागल तो नहीं हो रही?   
मुझे कोई रोग है क्या, कोई बताता क्यों नहीं?   
यों ही कभी एक रोज़   
गिनती के सुख और दुःखों के अम्बार भूल जाऊँगी   
ख़ुद को भूल जाऊँगी, बेख़याली में गुम हो जाऊँगी   
याद करने की जद्दोजहद में हर रोज़ तड़पती रहूँगी   
फिर से जीने को हर रोज़ ज़रा-ज़रा मरती रहूँगी
मुमकिन है, मेरा जिस्म ज़िन्दा तो रहे   
पर कोई एहसास, मुझमें ज़िन्दा न बचे। 
   
मेरी ज़िन्दगी अब अपनों पर बोझ बन रही है   
मेरी आवाज़ धीरे-धीरे ख़ामोश हो रही है   
मैं हर रोज़ ज़रा-ज़रा गुम हो रही हूँ   
हर रोज़ ज़रा-ज़रा कम हो रही हूँ।   
मैं सब भूल रही हूँ   
मैं धीरे-धीरे मर रही हूँ।   

-जेन्नी शबनम (21.9.2020)
(विश्व अल्ज़ाइमर दिवस) 
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मंगलवार, 15 सितंबर 2020

685. यादें, न आओ (यादें पर 10 हाइकु)

 यादें, न आओ

***

1. 
मीठी-सी बात   
पहली मुलाक़ात   
आई है याद।  

2. 
दुःखों का सर्प   
यादों में जाके बैठा   
डंक मारता।     

3. 
गहरे खुदे   
यादों की दीवार पे   
ज़ख़्मों के निशाँ।     

4. 
तुम भी भूलो,   
मत लौटना यादें,   
हमें जो भूले।   

5. 
पराए रिश्ते   
रोज़ याद दिलाते   
टीस हैं देते।     

6. 
रोज़ कहती   
यादें बचपन की-   
फिर से जी ले।     

7. 
दिल दुखाते   
छोड़ गए जो नाते,   
आती हैं याद।     

8. 
पीछा करता,   
भोर-साँझ-सा चक्र   
यादों का वक्र।     

9. 
यादों का पंछी   
दाना चुगने आता   
आवाजें देता।     

10. 
दुःख की बातें,   
यादें, न आओ रोज़,   
जीने दो मुझे।     

- जेन्नी शबनम (15. 9. 2020)
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बुधवार, 9 सितंबर 2020

684. बारहमासी

बारहमासी

*** 

रग-रग में दौड़ा मौसम   
रहा न मन अनाड़ी   
मौसम का है खेल सब   
हम ठहरे इसके खिलाड़ी।   

आँखों में भदवा लगा   
जब आया नाचते सावन   
जीवन में उगा जेठ   
जब सूखा मन का आँगन।   

आया फगुआ झूम-झूमके   
तब मन हो गया बैरागी   
मुँह चिढ़ाते कार्तिक आया   
पर जली न दीया-बाती।   

समझो बातें ऋतुओं की   
कहे पछेया बासन्ती   
मन चाहे बेरंग हो, पर   
रूप धरो रंग नारंगी।   

पतझड़ हो या हरियाली   
हँसी हो बारहमासी   
मन में चाहे अमावस हो   
जोगो सदा पूरनमासी।   

-जेन्नी शबनम (9.9.2020) 
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गुरुवार, 3 सितंबर 2020

683. परी

परी

******* 

दुश्वारियों से जी घबराए   
जाने क़यामत कब आ जाए   
मेरे सारे राज़, तुम छुपा लो जग से   
मेरा उजड़ा मन, बसा लो मन में।   
पूछे कोई कि तेरे मन में है कौन   
कहना कि एक थी परी, ग़ुलाम देश की रानी   
अपने परों से उड़कर, जो मेरे सपने में आई   
किसी से न कहना, उस परी की कहानी   
जो एक रोज़ मिली तुमको, डरती हुई   
खोकर आज़ादी तड़पती हुई।   
लहू से लथपथ, जीवन से विरक्त   
किसी ने छला था, बड़ा उसका मन   
पंख थे दोनों उसके कतरे हुए   
आँखें थीं बंद, पर आँसू लुढ़कते रहे   
होठों पे चुप्पी और सिसकी थमती नहीं   
उफ़! बदहवास, बड़ी थी बदहाल   
उसके मन में थे ढेरों मलाल   
कह गई मुझसे वो अपना हाल   
जीवन बीता था बनकर सवाल   
ले लिया वादा कि लेना न नाम।   
परी थी वो, मगर थी ग़ुलाम   
अपनों ने छीने थे सारे अरमान   
साँसों पर बंदिश, सपनों पर पहरे   
ऐसे में भला, कोई कैसे जीए?   
ज़ख़्मी तन और घायल मन   
फ़ना हो गई, हर राज़ कहकर   
रह गई मेरे मन में कहानी बनकर   
सच उसका, मुझे कहना नहीं   
वो दे गई, ये कैसी मज़बूरी।   
हाँ! सच है, वो परी न थी   
न किसी के सपनों की रानी   
वह थी थकी-हारी, टूटी एक नारी   
जो सदा रही सबके लिए बेमानी   
नहीं है कोई अब उसकी निशानी।   
ओह! उसने कहा था राज़ न खोलना   
उसकी इज़्ज़त अपने तक रखना,   
ना-ना वो थी परी,ग़ुलाम देश की रानी   
अपने परों से उड़कर, जो मेरे सपने में आई।   

- जेन्नी शबनम (3. 9. 2020)
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रविवार, 30 अगस्त 2020

682. ज़िन्दगी के सफ़हे (क्षणिका)

ज़िन्दगी के सफ़हे 

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ज़िन्दगी के सफ़हे पर चिंगारी धर दी किसी ने   
जो सुलग रही है धीरे-धीरे   
मौसम प्रतिकूल है, आँधियाँ विनाश का रूप ले चुकी हैं   
सूरज झुलस रहा है, हवा और पानी का दम घुट रहा है   
सन्नाटों से भरे इस दश्त में 
क्या ज़िन्दगी के सफ़हे सफ़ेद रह पाएँगे?   
झुलस तो गए हैं, बस राख बनने की देर है।   

- जेन्नी शबनम (30. 8. 2020) 
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गुरुवार, 20 अगस्त 2020

681. घात (10 क्षणिका)

घात

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1. 
घात 
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सपने और साँसें दोनों नज़रबंद हैं   
न जाने कौन घात लगाए बैठा हो   
ज़रा-सी चूक और सब ख़त्म।   

2.
कील 
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मन के नाज़ुक तहों में   
कभी एक कील चुभी थी   
जो बाहर न निकल सकी   
वह बारहा टीस देती है   
जब-जब दूसरी नई कील   
उसे और अंदर बेध देती है।     

3. 
काँटे 
******* 
तमाम उम्र ज़िन्दगी से काँटे छाँटती रही   
ताकि ज़िन्दगी बस फूल ही फूल हो   
बिना चुभे एक भी काँटा अलग न हुआ   
हर बार चुभता, ज़ख्म देता, रूलाता   
धीरे-धीरे फूलों का खिलना बंद हुआ   
रह गए बस काँटे ही काँटे   
अब इसे छाँटना क्या।     

4. 
जल गए 
******* 
वक़्त की टहनी पर रिश्तों के फूल खिले   
कुछ टिके, कुछ झरे, कुछ रुके, कुछ बढे   
जो टिके, वे सँभल न सके   
जो झरे, वे झुलस गए   
ज़िन्दगी आग का दरिया है   
वक़्त के साथ सब जल गए   
वक़्त के साथ सब ढल गए।      

5. 
साथ 
******* 
हम समझते थे   
वक़्त पर साथ मेरे सब खड़े होंगे   
ताल्लुकात के रंग   
वक़्त ने बहुत पहले ही दिखा दिए।     

6. 
हिसाब 
******* 
तमाम उम्र हिसाब लगाते रहे   
क्या पाया क्या न पाया   
फ़ेहरिस्त तो बनी बड़ी लम्बी   
मगर सिर्फ़ कुछ न पाने की।     

7. 
गुज़र गया 
******* 
सूखे पत्तों-सा सूखा मन   
बिखरा पड़ा, मानो पतझड़   
आस की ऊँगली थामे   
गुज़र गया, तमाम जीवन।     

8. 
परिहास 
******* 
संबंधों की पृष्ठभूमि पर   
भाव लिखूँ, अभाव लिखूँ, प्रभाव लिखूँ   
या तहस-नहस होते नातों पर   
परिहास लिखूँ।     

9. 
माँग 
******* 
हर लम्हा वक़्त ने है छीना   
सारी उम्र पे कब्ज़ा है   
अब कुछ भी तो शेष नहीं   
वक़्त अभी भी माँग रहा   
मैं मानूँगी आदेश नहीं   
अब कुछ भी तो शेष नहीं।     

10. 
रूह 
******* 
एक रूह की तलाश में कितने ही पड़ाव मिले   
पर कहीं ठौर न मिला कहीं ठहराव न मिला   
मन का सफ़र ख़त्म नही होता   
रूहों का नगर जाने कहाँ होता है?   
रूहें शायद सिर्फ़ आसमान में बसती हैं।     

- जेन्नी शबनम (20. 8. 2020) 
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गुरुवार, 13 अगस्त 2020

680. विदा (क्षणिका)

विदा 

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उम्र के बेहिसाब लम्हे, जाने कैसे ख़र्च हो गए    
बदले में मिले ज़िन्दगी के छल   
एकांत के अनेक कठोर पल   
जब न सुनने वाला कोई, न समझाने वाला कोई   
न पास आने वाला, न दूर जाने वाला कोई   
न संगी, न साथी, न रिश्ते, न रिश्तेदारी   
अपनी नीरवता में ख़ुद के साथ   
सिमटे हुए दोनों खुले हाथ   
और यूँ धीरे-धीरे विदा हो रही ज़िन्दगी।   

- जेन्नी शबनम (12. 8. 2020) 
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रविवार, 26 जुलाई 2020

679. पहचाना जाएगा (तुकांत)

पहचाना जाएगा

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वक़्त मुट्ठी से फिसलता, जीवन कैसे पहचाना जाएगा   
कौन किसको देखे यहाँ, कोई कैसे पहचाना जाएगा।    

ज़मीर कब कहाँ मरा, ये अब दिखाएगा कौन भला   
हर शीशे में कालिख पुता, चेहरा कैसे पहचाना जाएगा।    

कौन किसका है सगा, भला यह कौन किसको बताएगा   
आईने में अक्स जब, ख़ुद का ही न पहचाना जाएगा।    

टुकड़ों-टुकड़ों में ज़िन्दगी बीती, किस्त-किस्त में साँसें   
पुरसुकून जीवन भला, अब कैसे ये पहचाना जाएगा।    

रूठ गए सब अपने-पराए, हर ठोकर याद दिलाएगी   
अपने पराए का भेद अब, 'शब' से न पहचाना जाएगा।  

- जेन्नी शबनम (26. 7. 2020) 
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सोमवार, 20 जुलाई 2020

678. चिड़िया फूल या तितली होती (चोका - 13)

चिड़िया फूल या तितली होती 

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अक्सर पूछा   
ख़ुद से ही सवाल   
जिसका हल   
नहीं किसी के पास,   
मैं ऐसी क्यों हूँ ?   
मैं चिड़िया क्यों नहीं   
या कोई फूल   
या तितली ही होती,   
यदि होती तो   
रंग-बिरंगे होते   
मेरे भी रूप   
सबको मैं लुभाती   
हवा के संग   
डाली-डाली फिरती   
ख़ूब खिलती   
उड़ती औ नाचती,   
मन में द्वेष   
खुद पे अहंकार   
कड़वी बोली   
इन सबसे दूर   
सदा रहती   
प्रकृति का सानिध्य   
मिलता मुझे   
बेख़ौफ़ मैं भी जीती   
कभी न रोती   
बेफ़िक्री से ज़िन्दगी   
ख़ूब जीती   
हँसती ही रहती   
कभी न मुरझाती!

- जेन्नी शबनम (20.7.2020)
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बुधवार, 8 जुलाई 2020

677. इतनी-सी फ़िक्र

इतनी-सी फ़िक्र

*** 

दो चार फ़िक्र हैं जीवन के   
गर मिले कोई राह, चले जाओ   
बेफ़िक्री लौटा लाओ। 
   
कह तो दिया कि दूर जाओ   
निदान के लिए सपने न देखो   
राह पर बढ़ो, बढ़ते चले जाओ   
वहाँ तक जहाँ पृथ्वी का अन्त है   
वहाँ तक जहाँ कोई दुष्ट या संत है   
बस इन्सान नहीं है 
प्यार से कोई पहचान नहीं है   
या वहाँ जहाँ क्षितिज पर आकाश से मिलती है धरा   
या वहाँ जहाँ गुम हो जाए पहचान, न हो कोई अपना। 
   
मत सोचो देस-परदेस   
भूल जाओ सब तीज-त्योहार   
बिसरा दो सब प्यार-दुलार   
लौट न पाओ कभी   
मिल न पाओ अपनों से कभी   
यह पीर मन में बसाकर रखना   
पर हिम्मत कभी न हारना   
यायावर-सा न भटकना    
दिग्भ्रमित न होना तुम   
अकारण और नहीं रोना तुम   
एक ठोस ठौर ढूँढकर   
सपनों में हमको सजा लेना   
मन में लेकर अपनों की यादें   
पूरी करना बुनियादी ज़रूरतें। 
   
आस तो रहेगी तुम्हें   
अपने उपवन की झलक पाने की   
कुटुम्बों संग जीवन बिताने की   
वंशबेल को देखने की   
प्रियतमा के संग-साथ की   
मिलन की किसी रात की   
पर समय की दरकार है   
तक़दीर की यही पुकार है। 
   
कोई उम्मीद नहीं, कोई आस नहीं   
किसी पल पर कोई विश्वास नहीं   
रहा-सहा सब पिछले जन्म का भाग्य है   
इस जन्म का इतना ही इन्तिज़ाम है   
बाक़ी सब अगले जन्म का ख़्वाब है। 
   
निपट जाए जीवन-भँवर, बस इतना ही हिसाब है   
चार दिन का जीवन, दो जून की रोटी   
बदन पर दो टुक चीर, फूस का अक्षत छप्पर   
बस इतनी-सी दरकार है   
बस इतनी-सी तो बात है।   

-जेन्नी शबनम (7.7.2020) 
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बुधवार, 1 जुलाई 2020

676. सँवरने नहीं देती (तुकांत)

सँवरने नहीं देती

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दर्द की ज़ुबान मीठी है बहकने नहीं देती   
लहू में डूबी है ज़िन्दगी सँवरने नहीं देती।    

इक रूह है जो जिस्म में तड़पती रहती है   
कमबख्त साँस हैं जो निकलने नहीं देती।    

मसला तो हल न हुआ बस चलते ही रहे   
थक गए पर ये ज़िन्दगी थमने नहीं देती।    

वक़्त के ताखे पे रखी रही उम्र की बाती   
क़िस्मत गुनहगार ज़िन्दगी जलने नहीं देती।    

अब रूसवाई क्या और भला किससे करना   
चाक-चाक दिल मगर आँसू बहने नहीं देती।    

मेरे वास्ते अपनों की भीड़ ने कजा को पुकारा   
शब से रूठी है कजा उसको मरने नहीं देती।    

- जेन्नी शबनम (1. 7. 2020) 
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शुक्रवार, 26 जून 2020

675. रीसेट

रीसेट

*** 

हयात के लम्हात, दर्द में सने थे   
मेरे सारे दिन-रात, आँसू से बने थे   
नाकामियों, नादानियों और मायूसियों के तूफ़ान   
मन में लिए बैठे थे 
वक़्त से सुधारने की गुहार लगाते-लगाते   
बेज़ार जिए जा रहे थे   
हम थे पागल 
जो माज़ी से प्यार किए जा रहे थे। 
  
कल वक़्त ने कान में चुपके से कहा-   
सारे कल मिटाकर, नए आज भर लो    
वक़्त अब भी बचा है 
ज़िन्दगी को रीसेट कर लो
जितनी बची है 
उतनी ज़िन्दगी भरपूर जी लो। 
   
दर्द को खा लो, आँसू को पी लो   
सारे कल मिटाकर, नए आज भर लो   
वक़्त अब भी बचा है 
ज़िन्दगी को रीसेट कर लो।   

-जेन्नी शबनम (26.6.2020) 
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मंगलवार, 23 जून 2020

674. इनार

इनार 

*** 

मन के किसी कोने में   
अब भी गूँजती हैं कुछ धुनें।   
  
रस्सी का एक छोर पकड़   
छपाक-से कूदती हुई बाल्टी   
इनार पर लगी हुई चकरी से   
एक सुर में धीरे-धीरे ऊपर चढ़ती बाल्टी   
टन-टन करती बड़ी बाल्टी, छोटी बाल्टी 
लोटा-कटोरा और बाटी-बटलोही   
सब करते रहते ख़ूब बतकही। 
   
दाँत माँजना, बर्तन माँजना   
कपड़ा फींचना, दुःख-सुख गुनना   
ननद-भौजाई की हँसी-ठिठोली   
सास-पतोह की नोक-झोंक   
बाबा-दादी के आते ही घूँघट काढ़ करती हड़बड़  
चिल्ल-पों करते बच्चों का नहाना   
तुरहा-तुरहिन का आकर साँसे भरना   
प्यासे बटोही की अँजुरी में   
बाल्टी से पानी उड़ेलकर पिलाना   
लोटा में पानी भरकर सूरज को अर्घ्य देना।
   
रोज़-रोज़ वही दृश्य 
पर इनार चहकता हर दिन   
भोर से साँझ प्यार लुटाता रुके बिन। 
  
एक सामूहिक सहज जीवन   
समय के साथ बदला मन   
दुःख-सुख का साथी इनार 
अब मर गया है   
चापाकल घर-घर आ गया है।
   
परिवर्तन जीवन का नियम है   
पर कुछ बदलाव टीस दे जाता है   
आज भी इनार बहुत याद आता है।   

-जेन्नी शबनम (23.6.2020) 
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रविवार, 21 जून 2020

673. बोनसाई

बोनसाई 

*** 

हज़ारों बोनसाई उग गए हैं   
जो छोटे-छोटे ख़्वाबों की पौध हैं 
ये पौधे अब दरख़्तों में तब्दील हो चुकें हैं। 
  
ये सदा हरे-भरे नहीं रहते 
मुरझा जाने को होते हैं 
कि रहम की ज़रा-सी बदली बरसती है 
वे ज़रा-ज़रा हरियाने लगते हैं 
फिर कुनमुनाकर सब जीने लगते हैं। 
   
वे अक्सर अपने बौनेपन का प्रश्न करते हैं   
आख़िर वे सामान्य क्यों न हुए 
क्यों बोनसाई बन गए   
ये कैसा रहस्य है  
ये ऐसे दरख़्त क्यों हुए 
जो किसी को छाँव नहीं दे सकते 
फलने, फूलने, जीने के लिए हज़ार मिन्नतें करते हैं   
फिर मौसम को तरस आता है   
वे ज़रा-सी धूप और पानी दे देते हैं। 
  
आख़िर ऐसा क्यों है?   
क्यों बिन माँगे मौसम उन्हें कुछ नहीं देता   
क्यों लोग हँसते हैं उसके ठिगनेपन पर   
बोनसाई होना उनकी चाहत तो न थी 
सब तक़दीर के तमाशे हैं   
जो वे भुगतते हैं   
रोज़ मर-मरकर जीते है   
पर ख़्वाबों के ये बोनसाई 
कभी-कभी तनहाई में हँसते भी हैं।    

-जेन्नी शबनम (21. 6. 2020) 
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मंगलवार, 16 जून 2020

672. ख़ाली हाथ जाना है (तुकांत)

ख़ाली हाथ जाना है 

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ख़ाली हाथ हम आए थे   
ख़ाली हाथ ही जाना है।   

तन्हा-तन्हा रातें गुज़री   
तन्हा दिन भी बिताना है।   

समझ-समझ के समझे क्यों   
समझ से दिल कब माना है।   

क़तरा-क़तरा जीवन छूटा   
क़तरा-क़तरा सब पाना है।   

बूँद-बूँद बिखरा लहू   
बूँद-बूँद मिट आना है।   

झम-झम बरसी आँखें उसकी   
झम-झम जल ये चखाना है।   

'शब' को याद मत करो तुम   
उसका गया ज़माना है।   

- जेन्नी शबनम (16. 6. 2020)
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मंगलवार, 9 जून 2020

671. आईना और परछाई

आईना और परछाई 

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आईना मेरा सखा   
जो मुझसे कभी झूठ नहीं बोलता   
परछाई मेरी सखी   
जो मेरा साथ कभी नहीं छोड़ती   
इन दोनों के साथ मैं   
जीवन के धूप-छाँव का खेल खेलती   
आईना मेरे आँसू पोंछता   
बिना थके मुझे सदा हँसाता   
परछाई मेरे संग-संग घूमती   
अँधियारे से मैं जब-जब डरती   
मेरा हाथ पकड़ वो रोशनी में भागती   
हाँ! यह अलग बात   
आजकल आईना मुझसे रूठा है   
मैं उससे मिलने नहीं जाती   
उसका सच मैं देखना नहीं चाहती   
आजकल मेरी परछाई मुझसे लड़ती है   
मैं अँधेरों से बाहर नहीं निकलती   
जाने क्यों रोशनी मुझे नहीं सुहाती।   
जानती हूँ, ये दोनों साथी   
मेरे हर वक़्त के राज़दार हैं   
मेरा आईना मेरा मन   
मेरी परछाई मेरी साँसें   
ये कभी न छोड़ेंगे मेरा दामन। 

- जेन्नी शबनम (9. 6. 2020) 
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शुक्रवार, 5 जून 2020

670. फूलवारी (क्षणिका)

फूलवारी 

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जब भी मिलने जाती हूँ   
कसकर मेरी बाँहें पकड़, कहती है मुझसे-   
अब जो आई हो, तो यहीं रह जाओ   
याद करो, जब अपने नन्हे-नन्हे हाथों से   
तुमने रोपा था, हम सब को   
देखो कितनी खिली हुई है बगिया   
पर तुम्हारे बिना अच्छा नहीं लगता   
शहर में न तो फूल है न फूलवारी   
रूक जाओ न यहीं पर   
बचपन के दिनों-सी बौराई फिरना।  

- जेन्नी शबनम (5. 6. 2020) 
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मंगलवार, 2 जून 2020

669. रंग

रंग  

*** 

बेरंग जीवन बेनूर न हो   
क़र्ज़ में माँग लाई मौसम से ढेरों रंग   
लाल, पीले, हरे, नीले, नारंगी, बैगनी, जामुनी   
छोटी-छोटी पोटली में बड़े सलीक़े से लेकर आई   
और ख़ुद पर उड़ेलकर ओढ़ लिया मैंने इंद्रधनुषी रंग। 
   
अब चाहती हूँ   
रंगों का क़र्ज़ चुकाने, मैं मौसम बन जाऊँ   
मैं रंगों की खेती करूँ और ख़ूब सारे रंग मुफ़्त में बाँटूँ   
उन सभी को जिनके जीवन में मेरी तरह रंग नहीं हैं    
जिन्होंने न रोटी का रंग देखा, न प्रेम का   
न ज़मीन का, न आसमान का।
   
चाहती हूँ   
अपने-अपने शाख से बिछुड़े 
पेट की आग का रंग ढूँढते-ढूँढते   
बेरंग सपनों में जीनेवाले   
अब रंगों से होली खेलें, रंगों से ही दीवाली भी   
रंगों के सपने हों, रंगों की ही हक़ीकत हो। 
  
रंग रंग रंग!   
क़र्ज़! क़र्ज़! क़र्ज़!   
ओह मौसम! नहीं चुकाऊँगी उधारी   
कितना भी तगादा करो, चाहे न निभाओ यारी। 
   
तुम्हारी उधारी तब तक   
जब तक मैं मौसम न बन जाऊँ।   

-जेन्नी शबनम (2.6.2020) 
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सोमवार, 1 जून 2020

668. सीता की पीर (10 हाइकु)

सीता की पीर (10 हाइकु)

******* 

1. 
राह अगोरे  
शबरी-सा ये मन,  
कब आओगे?  

2. 
अहल्या बनी  
कोई राम न आया  
पाषाण रही।  

3. 
चीर-हरण,  
द्रौपदी का वो कृष्ण  
आता न अब।  

4. 
शुचि द्रौपदी  
पाँच वरों में बँटी,  
किसका दोष?  

5. 
कर्ण का दान  
कवच व कुंडल,  
कुंती बेकल।  

6. 
सीता है स्तब्ध  
राम का तिरस्कार  
भूमि की गोद।  

7. 
सीता की पीर  
माँ धरा ने समेटी  
दो फाँक हुई।  

8. 
स्पंदित धरा  
फटा धरा का सीना  
समाई सीता।  

9. 
त्रिदेव शिशु,  
सती अनसूइया  
आखिर हारे।  

10. 
सती का कुंड  
अब भी प्रज्वलित,  
कोई न शिव।  

- जेन्नी शबनम (31. 5. 2020)
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शनिवार, 30 मई 2020

667. नीरवता

नीरवता 

*** 

मन के भीतर   
एक विशाल जंगल बस गया है 
जहाँ मेरे शब्द चीखते-चिल्लाते हैं 
ऊँचे वृक्षों-सा मेरा अस्तित्व 
थककर एक छाँव ढूँढता है 
लेकिन छाँव कहीं नहीं है   
मैंने ख़ुद वृक्षों का क़त्ल किया था। 
   
इस बीहड़ जंगल से अब मन डरने लगा है   
ढूँढती हूँ, पुकारती हूँ   
पर कहीं कोई नहीं है   
मैंने इस जंगल में आने का न्योता   
कभी किसी को दिया ही नहीं था। 
   
मन में ये कैसा कोलाहल ठहर गया है?   
जानवरों के जमावड़े का ऊधम है 
या मेरे सपने टकरा रहे हैं? 
  
कभी मैंने अपनी सभी ख़्वाहिशों को   
ताक़त के रूप में बाँटकर 
आपस में लड़ा दिया था   
जो बच गए थे, उन्हें आग में जला डाला   
अब तो सब लुप्त हो चुके हैं   
मगर शोर है कि थमता नहीं। 
   
मन का यह जंगल, न आग लगने से जलता है   
न आँधियों में उजड़ता है   
नीरवता व्याप्त है, जंगल थरथरा रहा है   
अब क़यामत आने को है।   

-जेन्नी शबनम (30.5.2020)
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सोमवार, 25 मई 2020

666. मन्त्र

मन्त्र 

***

अपनी पीर छुपाकर जीना   
मीठे कहकर आँसू पीना   
ये दस्तूर निभाऊँ कैसे   
जिस्म है घायल छलनी सीना।   

रिश्ते-नाते निभ नहीं पाते   
करें शिकायत किसकी किससे   
गली-चौबारे ख़ुद में सिमटे   
दरख़्त हुए सब टुकड़े-टुकड़े।   

मृदु भावों की बली चढ़ाकर   
मतलबपरस्त हुई ये दुनिया   
ख़िदमत में मिट जाओ भी गर   
कहेगी क़िस्मत सोई ये दुनिया।   

बेग़ैरत हूँ, कहेगी दुनिया   
गर ख़िदमत न कर ख़ुद को सँवारा   
साथ नहीं कोई ब्रह्म या बाबा   
पीर-पैग़म्बर का नहीं सहारा।   

पीर पराई कोई न समझे   
मर-मरकर छोड़ो यों जीना   
ख़त्म करो अब हर ताल्लुक़ को   
मन्त्र ये जीवन का दोहराना। 
   
यों ही अब दुनिया में रहना   
यों ही अब दुनिया से जाना   
ख़त्म करो अब हर ताल्लुक़ को   
मन्त्र ये जीवन का दोहराना।

-जेन्नी शबनम (25.5.2020)
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शुक्रवार, 22 मई 2020

665. स्वाद / बेस्वाद (10 क्षणिका)

स्वाद / बेस्वाद

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1. 
इश्क़ का स्वाद 
***
तेरे इश्क़ का स्वाद   
मीठे पानी के झरने-सा   
प्यास से तड़पते राही को   
इक घूँट भर भी मिल जाए   
पीर-पैगंबर की दुआ   
क़ुबूल हो जाए।   

2. 
तेरा स्वाद
***
एक घूँट इश्क़    
और तेरा स्वाद   
अस्थि-मज्जा में जा घुला   
जिसके बिना   
जीवन नामुमकिन।   

3. 
स्वाद चख लिया 
***
उस रोज़ नथुनों में समा गई   
रजनीगंधा की ख़ुशबू   
जो तेरे बदन को छूती हुई   
मुझसे आकर लिपट गई थी   
और मेरी साँसों में तू ठहर गया था   
रजनीगंधा की ख़ुशबू अब भी आती है   
और मुझे छूकर गुज़र जाती है   
पर कोई और ख़ुशबू अब मुझे भाती नहीं   
तेरा स्वाद मेरे मन ने   
एक बार चख जो लिया है।   

4. 
मर्ज़ी का स्वाद 
***
तेरी बातें तेरी मर्ज़ी    
तेरी दीद तेरी मनमर्ज़ी   
तेरी मर्जी तेरी मनमर्ज़ी    
इसमें कहाँ मेरी मर्ज़ी    
तेरी मर्ज़ी का स्वाद बड़ा ही तीखा   
भा गई मुझको तेरी मर्ज़ी    
अब तेरी मर्ज़ी मेरी मर्ज़ी।   

5. 
जीवन का स्वाद 
***
जीवन का स्वाद   
मैंने घूँट-घूँट पीकर लिया   
एक घूँट तेरे वास्ते बचाकर रखा है   
गर मिलो कभी तुम   
वह घूँट तुम पी लेना   
मेरी ज़िन्दगी की कड़वाहट   
तुम भी जी लेना।   

6. 
स्वाद भरी ज़िन्दगी 
***
कुछ खट्टी कुछ मीठी   
स्वाद से भरी मेरी ज़िन्दगी   
थोड़ी नरम थोड़ी गरम   
गुलगुले-सी मेरी ज़िन्दगी   
आओ थोड़ा तुम भी चख लो   
एक और स्वाद का मजा ले लो।   

7.
बेस्वाद इश्क़ 
*** 
तेरा स्वाद बदन में घुल गया था   
जब इश्क़ का जाम पिया मैंने   
अब सब बेस्वाद हो गया है   
जब से तेरा इश्क़    
कहीं और आबाद हुआ है।   

8. 
स्वाद बह जाए 
***
झामे से खुरच-खुरचकर   
पूरे बदन को छील दिया है   
कि रिसते लहू के साथ   
तेरे इश्क़ का स्वाद बह जाए।   

9.
कसैला स्वाद 
*** 
तेरे इश्क़ का स्वाद   
कितना कसैला है   
जब-जब तेरी याद आई   
उबकाई-सी आती है।   

10. 
ज़िन्दगी का कसैला स्वाद 
***
कैसी कसक थी   
झिझक में जीती रही   
कहने की बेताबी   
मगर कभी कह न सकी   
दर्दे ए एहसास नहीं रेशमी   
मेरे अल्फ़ाज़ हो गए काग़ज़ी   
जाने किस चूल्हे पर पकी क़िस्मत   
जो ज़िन्दगी का स्वाद कसैला हुआ।   

- जेन्नी शबनम (22. 5. 2020) 
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बुधवार, 20 मई 2020

664. कहासुनी जारी है

कहासुनी जारी है

*** 

पल-पल समय के साथ कहासुनी जारी है   
वो कहता रहता है, मैं सुनती रहती हूँ,   
अरेब-फ़रेब, जो उसका मन बोलता रहता है   
कान में पिघलता सीसा, उड़ेलता रहता है   
मैं हुँकारी भरती रहती हूँ, मुस्कुराती रहती हूँ   
अपना अपनापा दिखाती रहती हूँ। 
  
नहीं याद क्या-क्या सुनती रहती हूँ   
नहीं याद क्या-क्या बिसराती जाती हूँ   
जितना मेरा मन किया, उतना ही सुनती हूँ   
बहुत कुछ अनसुना करती हूँ।
   
न उसे पता कि मैंने क्या-क्या न सुना   
न मुझे पता कि उसने 
मुझे कितना-कितना धिक्कारा   
कितना-कितना दुत्कारा। 
  
फिर भी सब कहते हैं   
हमारे बीच बड़ा प्यारा सम्बन्ध है   
न हम लड़ते-झगड़ते दिखते हैं   
न कभी कहासुनी होती है   
बहुत प्यार से हम जीते हैं। 
  
यह हर कोई जानता है   
कहासुनी में दोनों को बोलना पड़ता है   
अपना-अपना कहना होता है   
दूसरों का सुनना होता है।
   
पर समय और मेरे बीच अजब-सा नाता है   
वह कहता जाता है, मै सुनती जाती हूँ   
कहासुनी जारी रहती है   
कहासुनी जारी है।

 -जेन्नी शबनम (20.5.2020) 
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शुक्रवार, 15 मई 2020

663. लॉकडाउन

लॉकडाउन

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लॉकडाउन से जब शहर हुए हैं वीरान   
बढ़ चुकी है मन के लॉकडाउन की भी मियाद   
अनजाने भय से मन वैसे ही भयभीत रहता है 
जैसे आज महामारी से पूरी दुनिया डरी हुई है   
मन को हज़ारों सवाल बेहिसाब तंग करते हैं   
जैसे टी. वी. पर चीखते ख़बरनवीसों के कुतर्क असहनीय लगते हैं   
कितना कुछ बदल दिया इस नन्हे-से विषाणु ने   
मानव को उसकी औक़ात बता दी, इस अनजान शत्रु ने,   
आज ताक़त के भूखे नरभक्षी, अपने बनाए गढ्ढे में दफ़न हो रहे हैं   
भात-छत के मसले, वोटों की गिनती में जुट रहे हैं   
सैकड़ों कोस चल-चलकर, कोई बेदम हो टूट रहा है   
बदहवास लोगों के ज़ख़्मों पर, कोई अपनी रोटी सेंक रहा है   
पेट-पाँव झुलस रहे हैं, आत्माएँ सड़कों पर बिलख रही हैं   
रूह कँपाती ख़बरें हैं, पर अधिपतियों को व्याकुल नहीं कर रही हैं   
अफ़वाहों के शोर में, घर-घर पक रहे हैं तोहमतों के पकवान   
दिल दिमाग दोनों त्रस्त हैं, चारों तरफ है त्राहि-त्राहि कोहराम,   
मन की धारणाएँ लगातार चहलक़दमी कर रही हैं   
मंदिर-मस्जिद के देवता लम्बी छुट्टी पर विश्राम कर रहे हैं   
इस लॉकडाउन में मन को सुकून देती पक्षियों की चहचहाहट है   
जो सदियों से दब गई थी मानव की चिल्ला-चिल्ली में   
खुला-खुला आसमान, खिली-खिली धरती है   
सन्न-सन्न दौड़ती हवा की लहरें हैं   
आकाश को पी-पीकर ये नदियाँ नीली हो गई हैं   
संवेदनाएँ चौक-चौराहों पर भूखे का पेट भर रही हैं   
ढेरों ख़ुदा आसमान से धरती पर उतर आए हैं अस्पतालों में   
ख़ाकी अपने स्वभाव के विपरीत मानवीय हो रही है   
सालों से बंद घर फिर से चहक रहा है   
अपनी-अपनी माटी का नशा नसों में बहक रहा है,   
बहुत कुछ भला-भला-सा है, फिर भी मन बुझा-बुझा-सा है   
आँखें सब देख रहीं हैं, पर मन अपनी ही परछाइयों से घबरा रहा है   
आसमाँ में कहकशाँ हँस रही है, पर मन है कि अँधेरों से निकलता नहीं   
जाने यह उदासियों का मौसम कभी जाएगा कि नहीं,   
तय है, शहर का लॉकडाउन टूटेगा   
साथ ही लौटेंगी बेकाबू भीड़, बदहवास चीखें   
लौटेगा प्रदूषण, आसमान फिर ओझल होगा   
फिर से क़ैद होंगी पशु-पक्षियों की जमातें,   
हाँ, लॉकडाउन तो टूटेगा, पर अब नहीं लौटेगी पुरानी बहार   
नहीं लौटेंगे वे जिन्होंने खो दिया अपना संसार   
सन्नाटों के शहर में अब सब कुछ बदल जाएगा   
शहर का सारा तिलिस्म मिट जाएगा   
जीने का हर तरीक़ा बदल जाएगा   
रिश्ते, नाते, प्रेम, मोहब्बत का सलीका बदल जाएगा,   
यह लॉकडाउन बहुत-बहुत बुरा है   
पर थोड़ा-थोड़ा अच्छा है   
यह भाग-दौड़ से कुछ दिन आराम दे रहा है   
चिन्ताओं को ज़रा-सा विश्राम दे रहा है,   
यह समय कुदरत के स्कूल का एक पाठ्यक्रम है   
जीवन और संवेदनाओं को समझने का पाठ पढ़ा रहा है!   

- जेन्नी शबनम (15. 5. 2020) 
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बुधवार, 13 मई 2020

662. अलविदा

अलविदा  

***

तपती रेत पर पाँव के नहीं   
जलते पाँव के ज़ख़्मों के निशान हैं   
मंज़िल दूर, बहुत दूर दिख रही है  
पाँव थक चुके हैं 
पाँव और मन जल चुके हैं  
हौसला देने वाला कोई नहीं  
साँसें सँभालने वाला कोई नहीं।
   
यह तय है 
ज़िन्दगी वहाँ तक नहीं पहुँच पाएगी   
जहाँ पाँव-पाँव चले थे 
जहाँ सपनों को पंख लगे थे  
जहाँ से ज़िन्दगी को सींचने 
बहुत दूर निकल पड़े थे। 
  
आह! अब और सहन नहीं होता  
तलवे ही नहीं, आँतें भी जल गई हैं  
जल की एक बूँद भी नहीं  
जिससे अन्तिम क्षण में तालू तर हो सके  
उम्मीद की अन्तिम तीली बुझने को है  
आख़िरी साँस अब उखड़ने को है। 
  
सलाम उन सबको   
जिनके पाँव ने उनका साथ दिया 
मेरे उन सपनों, उन अपनों 
उन यादों को अलविदा।   

-जेन्नी शबनम (12.5.2020) 
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शुक्रवार, 8 मई 2020

661. अनुभूतियों का सफ़र

अनुभूतियों का सफ़र 

*** 

अनुभूतियों के सफ़र में   
सम्भावनाओं को ज़मीन न मिली  
हताश हूँ, परेशान हूँ, मगर हार की स्वीकृति 
मन को नहीं सुहाती।   

फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए   
पुरज़ोर कोशिश करती हूँ    
कड़वे-कसैले से कुछ अल्फ़ाज़, मन को बेधते हैं   
फिर-फिर जीने की तमन्ना में   
हौसलों की बाग़वानी करती हूँ। 
 
सँभलने और स्थिरता की मियाद   
पूरी नहीं होती कि सब ध्वस्त हो जाता है
जाने कौन-सा गुनाह था या किसी जन्म का शाप   
अनुभूतियों के सफ़र में महज़ कुछ फूल मिले   
शेष काँटे ही काँटे   
जो वक़्त-बेवक्त चुभते रहे, मन को बेधते रहे।
   
पर अब सम्भावनाओं को जिलाना होगा   
उसे ज़मीन में उगाना होगा   
थके हों क़दम, मगर चलना होगा   
आसमान छिन जाए, मगर   
ज़मीन को पकड़ना होगा। 
  
जीवन की अनुभूतियाँ सम्बल हैं और   
जीवन की सम्भावना भी।


-जेन्नी शबनम (7.5.2020) 
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मंगलवार, 5 मई 2020

660. सरेआम मिलना (तुकांत)

सरेआम मिलना 

*******  

अकेले मिलना अब हो नहीं सकता  
जब भी मिलना है सरेआम मिलना   

मेरे रंजों ग़म उन्हें भाते नहीं
फिर क्या मिलना और क्योंकर मिलना   

नहीं होती है रुतबे से यारी
इनसे दूरी भली फ़िजूल मिलना   

कब मिटते हैं नाते उम्र भर के
कभी आना अगर तो जीभर मिलना।   

काश! ऐसा मिलना कभी हो जाए
ख़ुद से मिलना और ख़ुदा से मिलना।   

ऐसा मिलना कभी तो हम सीखेंगे  
रूह से मिलना और दिल से मिलना   

ऐसा हुनर अब भी नहीं हम सीख पाए  
जो चुभाए नश्तर उससे अदब से मिलना   

रोज़ गुम होते रहे भीड़ में हम  
आसान नहीं होता ख़ुद से मिलना।   

ज़ीस्त की यादें अब सोने नहीं देती  
यूँ जाग-जागकर किससे मिलना?   

सच्ची बातें हैं चुभती बर्छी-सी  
'शब' तुम चुप रहना किसी से न मिलना।  

- जेन्नी शबनम (5. 5. 2020) 
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शुक्रवार, 1 मई 2020

659. गँवारू लड़की

गँवारू लड़की

***   

एक गाँव की लड़की   
शहर में पनाह ढूँढती रही   
अपना नाम बताकर अपना पता पूछती रही   
अपने हिस्से के कुछ क़िस्से लेकर   
सबके मन के द्वार खटखटाती थी   
थोड़ा अपनापन माँगती थी 
मुट्ठी भर ज़मीन चाहती थी। 
  
कभी किसी ने उसकी परवाह न की   
पर अब वह ख़ुद भी बेपरवाह हो चुकी है   
न घर मिला, न मन मिला, न मान मिला   
न ठौर, न ठिकाना मिला   
सबने कहा, वह गँवारू है, किसी काम की नहीं   
न शहर के लायक़, न किसी घर के लायक़   
पर अब वह उदास नहीं रहती 
अब उसकी चुप्पी टूट चुकी है   
वह पलायन न करेगी, ढीठ होकर बढ़ेगी। 
   
वह देसी बोली बोलती है 
उसे गर्व है अपनी बोली पर   
वह गाँव की गँवार है 
उसे गर्व है, अपने गँवारूपन पर   
कम-से-कम उसने सोंधी मिट्टी को तो चूमा है   
अपनी बोली में सपनों को पाला है   
शहर आकर भी, जो गाँव से लाई थी 
सब सँभाला है   
पेड़-पौधों को दुलराया है   
वह हाथ से खाती है, तो अन्न को पहचानती है   
धड़कनों से बात करती है, तो मन को पहचानती है   
खेतों-डरेरों पर कूदती-फाँदती 
पशु-पक्षियों से यारी निभाई है   
वह सारे रिश्ते जीकर शहर आई है। 
   
हाँ! वह शहरी नहीं, शहर के लिए पराई है   
पर वो बहुत प्यारे गाँव से आई है   
शायद इसलिए वह अबतक कंक्रीट पहन नहीं पाई   
मोम को ओढ़कर बैठी है, पत्थर बन नहीं पाई   
इस जंगल में खो नहीं पाई   
अच्छा है, शहर की हो नहीं पाई   
वह गाँव की लड़की गँवारू है   
मगर अब शहर की नब्ज़ और शहरियों का शातिरपना 
पहचान गई है   
ख़ुद को समझने लगी है
शहर को जान गई है।   

-जेन्नी शबनम (1.5.2020)
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सोमवार, 27 अप्रैल 2020

658. निपटाया जाएगा (तुकांत)

निपटाया जाएगा  

*******  

विरोध के स्वर को कुछ यूँ दबाया जाएगा  
होश में जो हो उसे पागल बताया जाएगा।    

काट छाँटकर बाँट-बाँटकर यह संसार चलेगा  
रोटी और बेटी का मसला यूँ निपटाया जाएगा।    

क्रूरता और पाश्विकता कई खेमों में बँटे  
चौक चौराहों पर टँगा जिस्म दिखाया जाएगा।    

हदों की परवाह किसे बेहद से हम सब गुज़रे  
मुट्ठियों का इंक्लाब अब बेदम कराया जाएगा।    

नहीं परवाह सबको ज़माने के बदख्याली की  
नफ़रतों में अमन का पौधा खिलाया जाएगा।    

बाट जोहकर समय जब हथेलियों से फिसल जाएगा  
बद्दुआएँ 'शब' को देकर फिर ख़ूब पछताया जाएगा।   

- जेन्नी शबनम (27. 4. 2020) 
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रविवार, 26 अप्रैल 2020

657. झरोखा

झरोखा

*** 

समय का यह दौर   
जीवन की अहमियत 
जीवन की ज़रूरत सिखा रहा है। 
   
मुश्किल के इस रंगमहल में   
आशाओं का एक झरोखा 
जिसे पत्थर का महल बनाने में   
सदियों पहले बन्द किया था    
अब खोलने का वक़्त आ गया है   
ताकि एक बार फिर लौट सके 
सपनों का सुन्दर संसार   
सूरज की किरणों की बौछार   
बारिश की बूँदों की फुहार   
हो सके चाँदनी की आवाजाही   
आ सके हवा झूमती, नाचती, गाती। 
  
हम ताक सकें आसमान में चाँद-तारों की बैठक   
आकृतियाँ गढ़ती बादलों की जमात   
पक्षियों का कलरव   
रास्ते से गुज़रता इन्सानी रेला   
ज़रूरतों के सामानों का ठेला। 
  
हम सुन सकें हवाओं का नशीला राग   
बादलों की गड़गड़ाहट   
धूल-मिट्टी की थाप   
प्रार्थना की गुहार   
पड़ोसी की पुकार   
रँभाते मवेशियों की तान   
गोधूलि में पशुओं के खुरों और घंटियों की धुन   
हम मिला सकें कोयल के साथ कूउउ-कूउउ   
हम चिढ़ा सकें कौओं को काँव-काँव,   
हम कर सकें कोई ऐसी चित्रकारी   
जिसमें खूबसूरत नीला आसमान 
गेरुआ रंग धारण कर लेता है। 
   
पौधों की हरियाली में रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं   
मानो बच्चा लाड़-दुलार से माँ की गोद में जा सिमटता है   
हम बसा सकें सपनों के बड़े-बड़े चौबारे पर   
कोई अचम्भित करने वाली कामनाएँ। 
  
ओह! कितना कुछ था, जिसे खोया है हमने   
मन के झरोखों को बन्दकर   
कृत्रिमता से लिपटकर   
पत्थर के आशियाने में सिमटकर
अब समझ आ गया है   
जीवन की क्षणभंगुरता और क़ायनात की शिक्षा। 
   
खोल दो सबको   
आने दो झरोखे से वह सब   
जिसे हमने ख़ुद ही गँवाया था  
खोल दो झरोखा।   

- जेन्नी शबनम (26. 4. 2020) 
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सोमवार, 20 अप्रैल 2020

656. सच (9 क्षणिका)

1. 
सच  
***  

न कोई कल था  
न कोई आज है  
जो पाया, सब खोया  
जीवन का यही सच है।  
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2. 
संवेदना  
***  

संवेदनाओं को  
ज़मीन नहीं मिलती  
आकाश चाहिए नहीं  
फिर क्या?  
यूँ ही घुट-घुटकर मर जाए !  
जल सूखता जाता है, नदी उतरती है  
संवेदनशून्यता यूँ ही तो बढ़ती है।  
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3. 
काश!  
***  

ढेरों काश इकठ्ठा हो गए हैं  
पर मन है कि ठहरता नहीं  
काश! यह किया होता, काश! वह कर पाते  
इकत्रित काश के साथ, भविष्य के और काश न जुड़े  
मन को समझना होगा  
मन को रुकना होगा या मरना होगा  
या फिर सन्यस्त होना होगा।  
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4. 
नींद  
***  

दिल को जलाया है  
दिल मेरा ख़ाली है  
कोई नहीं जो सुकून दे  
मेरी तल्खियों को नींद दे  
आ जाओ ऐ फरिश्ते  
दिल में एक ख़्वाब उगा दो  
रूह को ज़रा-सा चैन दे दो  
आज बस सुला दो।  
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5. 
करवट  
***  

यादों के बिस्तर पर करवट ही करवट है  
हर करवट में टूटते दिल की सलवट है  
सलवटें तो मिट जाएँगी  
करवटें नींद में समा जाएगी  
पर यादें?  
कितने फूल कितने शूल  
हँसता दिल ज़ख़्मी सीना  
क्या ये यादों से दूर जा पाएँगे?  
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6. 
शर्त  
***  

बेशर्त ज़िन्दगी चलती नहीं  
शर्तें मन को फबती नहीं  
इसी उधेड़बुन में ठहरी रही  
करूँ तो अब मैं क्या करूँ  
शर्तें मानूँ या ज़िन्दगी मिटा लूँ  
अपनी बचाऊँ कि साँसें सँभालूँ।  
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7. 
भूल जाते हैं  
***  

चलो आज सारी रात जागते हैं  
आधा आसमान तुम्हारा आधा मेरा  
तुम तारे गिनो  
हम आधे आसमान में चाँद को सजाते हैं  
दिन भी निकलेगा भूल जाते हैं।  
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8. 
मुबारक़  
***  

अँधेरों का सैलाब बढ़ता जा रहा है  
रोशनी का एक तिनका भी नहीं, सब डूब रहा है  
हाथ थामने को कुछ नहीं सूझ रहा है  
सूरज ने अँधेरों को थामने से मना कर दिया है  
वह रोशनी भेजने को तैयार नहीं है  
मेरे लिए कुछ भी न इस पार न उस पार है  
उसने कहा- तुम्हें अँधेरे पसंद थे न  
लो, तुम्हें अँधेरे मुबारक़।  
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9. 
मेरा घर  
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रात के सीने में  
हज़ारों चमकते कोने हैं  
पर वहाँ एक महफूज़ कोना भी है  
जहाँ सबका प्रवेश वर्जित है  
वहाँ अँधेरा ही अँधेरा है  
बस वहीं, घर मेरा है।  
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- जेन्नी शबनम (20. 4. 2020)  
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गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

655. फूल यूँ खिले (10 हाइकु) पुस्तक 116,117

फूल यूँ खिले 

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1.  
फूल यूँ खिले,  
गलबहियाँ डाले  
बैठे हों बच्चे।    

2.  
अम्बर रोया,  
ज्यों बच्चे से छिना  
प्यारा खिलौना।    

3.  
सूरज ने की  
किरणों की बिदाई  
शाम जो आई।    

4.  
फसलें हँसी,  
ज्यों धरा ने पहना   
ढेरों गहना।    

5.  
नाम तुम्हारा  
मन की रेत पर  
गहरा लिखा।    

6.  
देख गगन  
चिहुँकती है धरा  
हो कोई सगा।    

7.  
रूठा है सूर्य  
कैकेयी-सा, जा बैठा  
कोप-भवन।    

8.  
मन झरना  
कल-कल बहता  
पाके अपना।    

9.  
मिश्री-सी बोली  
बहुत ही मँहगी,  
ताले में बंद।    

10.  
चुभता रहा  
खुरदरा-सा रिश्ता  
फिर भी जिया।    

- जेन्नी शबनम (27. 1. 2020)  
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बुधवार, 8 अप्रैल 2020

654. समय चक्र (10 क्षणिका)

क्षणिकाएँ 

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1. 
समय चक्र  
***  
समय चक्र और जीवन चक्र  
दोनों घूम रहे हैं  
उन्हें रोकने की कोशिशों में  
मेरे दोनों हाथ छिल चुके हैं  
मैं उन्हें न रोक पाई न साथ चल पाई  
सदा नाकाम रही  
उसी तरह जिस तरह  
ख़ुद को अपने साथ रखने में नाकाम होती हूँ  
मुझे नहीं पता कि मैं कहाँ होती हूँ।
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2.
परत
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मेरे मौसम में अब कोई नहीं  
न मेरे मिज़ाज में कोई शामिल है  
मेरे मन पर जो एक नरम परत लिपटा था  
समय की ताप से पककर  
वह अब लोहे का हो गया है।  
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3..
यारी
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फूल तो सबको प्रिय, मैंने काँटों से यारी की  
इस यारी में लाचारी थी, मेरी नहीं मनमानी थी  
नसीब का लेखा-जोखा है, सब कुदरत का धोखा है  
यह क़िस्मत की साज़िश है, नहीं कोई गुंजाइश है  
काँटों की कलम से चाक-चाक, सीना मेरा छलनी है  
दर्द भले पुराना है, लेकिन नयी-नयी मेरी कहानी है।  
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4.  
ज़ख़्म   
***  
काँटों ने चुभाकर, जब भी ज़ख़्म दिए  
एक संतोष-सा मन में ठहर गया  
काँटों ने ज़ख़्म दिए हैं, तन छलनी हुआ तो क्या हुआ  
गर फूलों ने ज़ख़्म दिया होता, तो मन छलनी होता  
घाव तो भर जाएँगे  
मन तो साबुत रहेगा।
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5.  
पुल  
***  
ढेरों इल्ज़ामों की तरह एक और  
ढेरों कटु वचनों की तरह एक और  
फ़र्क नहीं पड़ता अब दुर्भावनाओं से  
न ही असर होता है, इल्ज़ामों की इन गिनतियों से  
वह जो एक पुल था, हमारे दरम्यान  
उसे वक़्त ने ढहा दिया है।  
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6.  
चेहरा  
***  
चेहरे तो कई ओढ़े कई उतारे  
कब कौन पहना अब याद नहीं  
सबसे सच्चा वाला चेहरा  
जो गुम हो चुका है, इन चेहरों की भीड़ में  
अब कभी नहीं पहन पाऊँगी  
पर एक टीस तो उठेगी  
जब-जब आईना निहारूँगी।  
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7.  
बेजान सड़क  
***  
बेजान सड़क में जैसे जान आ जाती है
मेरे पाँव में पहिया पहना देती है
फिर मुझे पहुँचा आती है वहाँ-वहाँ
जहाँ भीड़ में मैं अक्सर गुम हो जाती हूँ
फिर कोई अनजाना हाथ मुझे थाम लेता है
मगर कुछ क़दम के फ़ासले पर चलता है
सड़क को सब पता है
कहाँ मेरा सुकून है, कहाँ मेरी मंज़िल
और कहाँ थामने वाले हाथ।  
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8.  
तस्वीर  
***  
काश कि अतीत विस्मृत हो जाए  
ज़ेहन में तस्वीर कुछ ताज़ी आ जाए  
दर्द की ढेरों तहरीर और रिसते ज़ख़्मों के धब्बे हैं  
रिश्तों की ग़ुलामी और अनजीए पहलू की सरगोशी है  
सब बिसराकर नई तस्वीर बसाना चाहती हूँ  
कुछ नए फूल खिलाना चाहती हूँ  
एक नई ज़िन्दगी जीना चाहती हूँ।  
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9.  
जुर्रत  
***  
लुंज-पुंज से वक़्त में, ज़िन्दगी की अफरा-तफरी में
इश्क़ करने की मोहलत मिल गई
समय संजीदा हुआ 
पूछा- ऐसी जुर्रत क्यों की?
अब इसका क्या जवाब
जुर्रत तो हो गई
अब हो गई तो हो गई।  
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10.
दवा-दुआ  
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उम्र के इस दौर में, तन्हाइयों के इस ठौर में  
न दवा काम आती है न दुआ काम आती है  
बस किसी अपने की यादें साथ रह जाती हैं  
यूँ सच है खोखले रिश्तों के बेजान शहर में  
कौन किसके वास्ते दुआ करे, करे तो क्यों करे  
कोई किसी को अपना मान ले  
आख़िरी पलों में बस इतना ही काफ़ी है।  
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- जेन्नी शबनम (8. 4. 2020)  
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