शनिवार, 27 सितंबर 2014

470. दूध-सी हैं लहरें (हाइगा लेखन का प्रथम प्रयास- 8 हाइगा)

दूध-सी हैं लहरें 
(हाइगा लेखन का प्रथम प्रयास- 8 हाइगा)

***

1. 
सूरज झाँका 
***
सूरज झाँका- 
सागर की आँखों में 
रूप सुहाना। 
1





















2. 
क़दमों के निशान 
***
मिट जाएँगे 
क़दमों के निशान,  
यही जीवन। 
2 (2)





































3. 
सागर नीला 
***
अद्भुत लीला-
दूध-सी हैं लहरें, 
सागर नीला। 
3





















4.
अथाह नीर 
***
अथाह नीर 
आसमाँ ने बहाई 
मन की पीर। 

4






















5.
सूरज लाल 
***
सूरज लाल 
सागर में उतरा 
देखने हाल। 

5






















6.
लहरें दौड़ी आईं 
***
पाँव चूमने 
लहरें दौड़ी आईं, 
मैं सकुचाई। 

6






































7.
उतर जाऊँ-
सागर में खो जाऊँ 
सागर सखा! 

7






















8.
बादल व सागर 
***
क्षितिज पर, 
बादल व सागर 
आलिंगनबद्ध। 

8























-जेन्नी शबनम (20.9.2014)
____________________

शनिवार, 20 सितंबर 2014

469. सागर तीरे (30 हाइकु)

सागर तीरे 

***

1. 
दम तोड़ती 
भटकती लहरें 
सागर तीरे। 

2. 
सफ़ेद रथ 
बढ़ता बिना पथ 
रेत में गुम। 

3. 
उमंग-भरी 
लहरें मचलतीं  
क़हर ढातीं। 

4. 
लहरें दौड़ीं 
शिला से टकराई  
टूटी बिखरी। 

5. 
नभ या धरा 
किसका सीना बिंधा, 
बहते आँसू। 

6.  
पाँव चूमने 
लहरें दौड़ी आईं,  
मैं सकुचाई। 

7. 
टकराती हैं 
पर हारती नही,
लहरें योद्धा। 

8. 
बेचैनी बढ़ी 
चाँद पूरा जो उगा 
सागर नाचा। 

9. 
कोई न जाना, 
अच्छा किया मिटाके 
रेत पे नाम। 

10. 
फुफकारतीं 
पर काटती नहीं 
लहरें नाग। 

11. 
दिन व रात 
सागर जागता है,  
अनिद्रा रोगी।  

12. 
डराता नित्य 
दहाड़ता दौड़ता 
सागर दैत्य। 

13. 
बड़ा लुभातीं, 
लहरें करतीं ज्यों 
अठखेलियाँ। 

14.
उतर जाऊँ- 
सागर में खो जाऊँ,  
सागर सखा। 

15. 
बहती धारा 
झूमकर पुकारे 
बाँहें पसारे।

16. 
हाहाकारतीं  
साहिल से मिलतीं 
लहरें भोली। 

17. 
किसका शाप   
क्षणिक न विश्राम  
दिन या रात। 

18. 
फन उठाके 
बेतहाशा दौड़ता 
सागर-नाग। 

19. 
बेमक़सद 
दौड़ता ही रहता 
आवारा पानी। 

20. 
क्षितिज पर,  
बादल व सागर 
आलिंगन में। 

21.
सोचता होगा 
सागर जाने क्या-क्या 
कोई न जाने। 

22. 
सागर रोता 
कौन चुप कराता  
सगा न सखा। 

23
कभी-कभी तो   
घबराता ही होगा 
सागर का जी। 

24.
पानी का मेला 
हर तरफ़ रेला 
है मस्तमौला। 

25. 
जल की माया 
धरा व गगन की 
समेटे काया। 

26. 
अथाह नीर 
आसमाँ ने बहाई 
मन की पीर। 

27. 
मिट जाएँगे 
क़दमों के निशान,  
यही जीवन। 

28. 
अद्भुत लीला- 
दूध-सी हैं लहरें 
सागर नीला। 

29.  
सूरज झाँका- 
सागर की आँखों में 
रूप सुहाना। 

30. 
सूरज लाल 
सागर में उतरा 
देखने हाल। 

-जेन्नी शबनम (20.9.2014)
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शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

468. जीवन-बोध (शिक्षक दिवस पर 10 हाइकु) पुस्तक 60,61

जीवन-बोध 

*******

1.
गुरु से सीखा 
बिन अँगुली थामे  
जीवन-बोध।  

2.
बढ़ता तरु,  
माँ है प्रथम गुरु  
पाकर ज्ञान। 
  
3.
करता मन  
शत-शत नमन  
गुरु आपको।  

4.
खिले आखर   
भरा जीवन-रंग 
जो था बेरंग।   

5.
भरते मान  
पाते हैं अपमान, 
कैसा ये युग?  

6. 
ख़ुद से सीखा  
अनुभवों का पाठ  
जीवन गुरु।  

7.
थी नासमझ 
भाषा-बोली-समझ    
गुरु से पाई।   

8.
ज्ञान का तेज  
चहुँ ओर बिखेरे  
गुरु-दीपक।   

9.
प्रेरणा-पुष्प  
जीवन में खिलाते  
गुरु प्रेरक।   

10.
पसारा ज्ञान  
दूर भागा अज्ञान  
सद्गुणी गुरु।  

- जेन्नी शबनम (5. 9. 2014)
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गुरुवार, 4 सितंबर 2014

467. गाँव (गाँव पर 20 हाइकु)

गाँव 
 
***

1.
माटी का तन  
माटी में ही खिलता  
जीवन जीता।  

2.
गोबर-पुती 
हर मौसम सहे 
झोपड़ी तनी।  

3.
अपनापन 
बस यहीं है जीता  
हमारा गाँव।  

4.
भण्डार भरा,  
प्रकृति का कुआँ    
दान में मिला।   

5.
गीत सुनाती 
गाँव की पगडंडी 
रोज़ बुलाती।  

6.
ज़िन्दगी ख़त्म, 
फूस की झोपड़ी से 
नदी का घाट।  

7.
चिरैया चुगे 
लहलहाते पौधे 
धान की बाली।  

8.
गाँव की मिट्टी 
सोंधी-सोंधी महकी 
बयार चली।  

9.
कभी न हारी 
धुँआँ-धुँआँ ज़िन्दगी 
गाँव की नारी।  

10.
रात अन्हार 
दिन सूर्य उजार, 
नहीं लाचार।  

11.
सुख के साथी
माटी और पसीना, 
भूख मिटाते।  

12.
भरे किसान  
खलिहान में खान,   
अनाज सोना।  

13.
किसान नाचे    
खेत लहलहाए,  
भदवा चढ़ा।  

14. 
कोठी में चन्दा   
पर ज़िन्दगी फंदा,  
क़र्ज़ में साँस।  

15.
छीने सपने 
गाँव की ख़ुशबू के 
बसा शहर।    

16.
परों को नोचा  
शहर की हवा ने  
घायल गाँव।  

17.
कुनमुनाती  
गुनगुनी-सी हवा 
फ़सल साथ।  

18. 
कच्ची माटी में  
जीवन का संगीत,  
गाँव की रीत।  

19. 
नैनों में भादो,  
बदरा जो न आए 
पौधे सुलगे।  

20.
हुआ विहान,  
बैल का जोड़ा बोला-  
सरेह चलो।   

- जेन्नी शबनम (2. 9. 2014) 
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सोमवार, 1 सितंबर 2014

466. घर आ जा न (बारिश के 8 हाइकु) पुस्तक 57, 58

घर आ जा न 

*******

1.
बरसा नहीं 
भटक-भटकके 
थका बादल।  

2.
घूँघट काढ़े  
घटा में छुपकर  
सूर्य शर्माए।  

3.
बादल फटा 
रुष्ट इंद्र देवता 
खेत सुलगा।  

4.
घूमने चले 
बादलों के रथ पे 
सूर्य देवता।  

5.
अम्बर रोया 
दूब भीगती रही 
उफ़ न बोली।  

6.
गुर्राता मेघ 
कड़कता ही रहा 
नहीं बरसा।  

7.
प्रभाती गाता 
मंत्र गुनगुनाता 
मौसम आता। 

8.
पानी-पानी रे  
क्यों बना तू जोगी रे  
घर आ जा न।  

- जेन्नी शबनम (3. 7. 2014) 
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मंगलवार, 26 अगस्त 2014

465. जी चाहता है (7 क्षणिकाएँ)

जी चाहता है

*******

1.
जी चाहता है  
तुम्हारे साथ बीताई सभी यादों को  
धधकते चूल्हे में झोंक दूँ 
और फिर पानी डाल दूँ  
ताकि चिंगारी भी शेष न बचे।  

2.
जी चाहता है  
तुम्हारे साथ बीते उम्र के हर वक़्त को  
एक ताबूत में बंदकर नदी में बहा आऊँ  
और वापस उस उम्र में लौट जाऊँ  
जहाँ से ज़िन्दगी  
नई राह तलाशती सफ़र पर निकलती है। 

3.
जी चाहता है  
तुम्हारे साथ जिए उम्र को  
धकेलकर वापस ले जाऊँ  
जब शुरुआत थी हमारी ज़िन्दगी की  
और तब जो छूटा गया था  
अब पूरा कर लूँ।  

4.
जी चाहता है  
तुम्हारा हाथ पकड़  
धमक जाऊँ चित्रगुप्त जी के ऑफिस   
रजिस्टर में से हमारे कर्मों का पन्ना फाड़कर  
उससे पंख बना उड़ जाऊँ  
सभी सीमाओं से दूर।  

5.
जी चाहता है  
टाइम मशीन में बैठकर  
उम्र के उस वक़्त में चली जाऊँ  
जब कामनाएँ अधूरी रह गई थीं  
सब के सब पूरा कर लूँ  
और कभी न लौटूँ।  

6.
जी चाहता है  
स्वयं के साथ 
सदा के लिए लुप्त हो जाऊँ  
मेरे कहे सारे शब्द  
जो वायुमंडल में विचरते होंगे  
सब के सब विलीन हो जाएँ  
मेरी उपस्थिति के चिह्न मिट जाएँ  
न अतीत, न वर्तमान, न आधार  
यूँ जैसे, इस धरा पर कभी आई ही न थी। 

7.
जी चाहता है  
पीले पड़ चुके प्रमाण पत्रों और  
पुस्तक पुस्तिकाओं को  
गाढ़े-गाढ़े रंगों में घोलकर  
एक कलाकृति बनाऊँ  
और सामने वाली दीवार में लटका दूँ  
अपने अतीत को यूँ ही रोज़ निहारूँ।  

- जेन्नी शबनम (26. 8. 2014)
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शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

464. आज़ादी की बात

आज़ादी की बात

***

आज़ादी की बाबत पूछते हो 
मानो सीने के ज़ख़्म कुरेदते हो 
लौ ही नहीं जलती 
तो उजाले की लकीर कहाँ दिखेगी 
अँधेरों की सरपरस्ती में 
दीये की थरथराहट गुम हो जाएगी। 
 
पंछी के पर उगने ही कब दिए 
जो न उगने पर सवाल करते हो
तमाम पहर, तमाम उम्र इबादत की  
पर ख़ुदा तो तेरे शहर में नज़रबन्द है 
गुहार के लिए देवता कहाँ से लाऊँ? 

बदन के हर हिस्से में नंगी तलवारें घुसती हैं 
लहू के कारोबार में ज़िन्दगी मिटती है 
फिर भी आज़ादी की बाबत पूछते हो?
 
सदियों से सब सोए हैं 
अपनी-अपनी तक़दीर के भरोसे   
जाओ तुम सब सो जाओ, अपने-अपने महलों में 
ताकि किसी का मिटना देख न सको
किसी का सिसकना सुन न सको। 

हमें इन्तिज़ार है 
जाने कब दबे पाँव आ जाए आज़ादी 
और हुंकार के साथ छुड़ा दे उस ज़ंजीर से 
जिसने जकड़ रखा है हमारा मन 
काट डाले उस ग़ुलामी को  
जिससे हमारी साँसें धीरे-धीरे सिमट रही हैं। 
 
हर रोज़ मन में एक किरण उगती है  
जो आज़ादी की राह ताकती है 
फिर धीरे-धीरे दम तोड़ती है 
पर एक उम्मीद है, जो हारती नहीं 
हर रोज़ कहती है
वह किरण ज़रूर उगेगी 
जो आज़ादी को पकड़ लाएगी    
फिर आज़ादी की बाबत पूछना 
आज़ादी का रंग क्या और सूरत है क्या
रोटी और छत की जंग है क्या
अस्मत और क़िस्मत की आज़ादी है क्या। 

एक दिन सब बताऊँगी  
जब ज़रा-सी आज़ादी जिऊँगी   
फिर आज़ादी की बात करूँगी

-जेन्नी शबनम (15.8.2014)
(स्वतंत्रता दिवस)
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शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

463. फ़ना हो जाऊँ (तुकांत)

फ़ना हो जाऊँ

*******

मन चाहे बस सो जाऊँ  
तेरे सपनों में खो जाऊँ।   

सब तो छोड़ गए हैं तुमको   
पर मैं कैसे बोलो जाऊँ।   

बड़ों के दुःख में दुनिया रोती  
दुःख अपना तन्हा रो जाऊँ।   

फूल उगाते ग़ैर की ख़ातिर  
ख़ुद के लिए काँटे बो जाऊँ।   

ताउम्र मोहब्बत की खेती की   
कैसे ज़हर मैं अब बो जाऊँ।   

मिला न कोई इधर अपना तो  
'शब' सोचे कि फ़ना हो जाऊँ।   

- जेन्नी शबनम (25. 7. 2014)  
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शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

462. चकरघिन्नी (क्षणिका)

चकरघिन्नी

******* 

चकरघिन्नी-सी घूमती-घूमती 
ज़िन्दगी जाने किधर चल पड़ती है
सब कुछ वही, वैसे ही 
जैसे ठहरा हुआ-सा, मेरे वक़्त-सा  
पाँव में चक्र, जीवन में चक्र  
संतुलन बिगड़ता है  
मगर सब कुछ आधारहीन निरर्थक भी तो नहीं   
आख़िर कभी न कभी, कहीं न कहीं
ज़िन्दगी रुक ही जाती है। 

- जेन्नी शबनम (11. 7. 2014)
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सोमवार, 7 जुलाई 2014

461. इम्म्युन

इम्म्युन

*******

पूरी की पूरी बदल चुकी हूँ
अब तक ग़ैरों से छुपती थी
अब ख़ुद से बचती हूँ
अपने वजूद को
अलमारी के उस दराज़ में रख दी हूँ 
जहाँ गैरों का धन रखा होता है 
चाहे सड़े या गले पर नज़र न आए
यूँ भी, मैं इम्म्युन हूँ
हमारी क़ौमें ऐसी ही जन्मती हैं
बिना सींचे पनपती हैं,
इतना ही काफ़ी है
मेरा 'मैं' दराज़ में महफ़ूज़ है,
ग़ैरों के वतन में
इतनी ज़मीन नहीं मिलती कि
'मैं हूँ' ये सोच सकूँ
और ख़ुद को
अपने आईने में देख सकूँ। 

- जेन्नी शबनम (7. 7. 2014)
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मंगलवार, 1 जुलाई 2014

460. स्मृतियाँ शूल (10 हाइकु)

स्मृतियाँ शूल 

*******

1.
तय हुआ है-
मौसम बदलेगा
बर्फ़ जलेगी।

2.
लेकर चली
चींटियों की क़तार
मीठा पहाड़।

3.
तमाम रात
धकेलती ही रही
यादों की गाड़ी।

4.
आँखें मींचती
सूर्य के गले लगी
धरा जो जागी।

5.
जाने क्या सोचे
यायावर-सा फिरे
बादल जोगी।

6.
डरे होते हैं-
बेघर न हो जाएँ 
मेरे सपने 

7.
हार या जीत 
बेनाम-सी उम्मीद 
ज़मींदोज़ क्यों?

8.
ख़ारिज हुई 
जब भी भेजी अर्ज़ी 
ख़ुदा की मर्ज़ी। 

9.
जश्न मनाता 
सूरज निकलता 
हो कोई ऋतु। 

10.
जब उभरें  
लहुलूहान करें 
स्मृतियाँ शूल। 

-जेन्नी शबनम (5.6.2014)
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शुक्रवार, 27 जून 2014

459. कैनवस

कैनवस

***

एक कैनवस कोरा-सा   
जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग  
पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे  
रोप दिए अपनी ख़्वाहिशों के पंख  
और चाहा कि जी लूँ अपनी सारी हसरतें  
उस कैनवस में घुसकर। 
  
आज वर्षों बाद वह कैनवस  
रंगों से भरा हुआ, उमंगों से सजा हुआ चहक रहा था  
उसके रंगों में एक नया रंग भी दमक रहा था   
मेरे भरे हुए रंगों से एक नया रंग पनप गया था। 
     
वह कैनवस अपने मनमाफ़िक रंगों से खिल रहा था   
उसमें दिख रहे थे मेरे सपने  
उसके पंख अब कोमल नहीं थे    
उम्र और समझ की कठोरता थी उसमें    
आकाश को पाने और ज़मीन को नापने का हुनर था उसमें। 
   
अब यही जी चाहता है   
वह कैनवस मेरे सपनों के रंग को बसा रहने दे  
उसमें और भर ले, अपने सपनों के रंग   
चटख-चटख, प्यारे-प्यारे, गुलमोहर-से   
जो अडिग रहते पतझर में   
मढ़ ले कुछ ऐसे नक्षत्र  
जो हर मौसम में उसे ऊर्जा दे  
गढ़ ले ऐसे शब्द, जो भावनाओं की धूप में दमकता रहे  
बसा ले धरा और क्षितिज को अपनी आत्मा में    
जिससे सफलताओं के उत्सव में आजीवन खिलता रहे। 
  
आज चाहती हूँ, कहूँ उस कैनवस से- 
तमाम कुशलता से रँग लो   
अपने सपनों का कैनवस।

-जेन्नी शबनम (22.6.2014)
(पुत्र के 21वें जन्मदिन पर)
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रविवार, 25 मई 2014

458. हादसा

हादसा

*******

हमारा मिलना 
हर बार एक हादसे में तब्दील हो जाता है 
हादसा, जिससे दूसरों का कुछ नहीं बिगड़ता 
सिर्फ़ हमारा-तुम्हारा बिगड़ता है  
क्योंकि, ये हादसे हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा हैं 
हमारे वजूद में शामिल 
दहकते शोलों की तरह 
जिनके जलने पर ही ज़िन्दगी चलती है  
अगर बुझ गए तो जीने का मज़ा चला जाएगा 
और बेमज़ा जीना तुम्हें भी तो पसंद नहीं  
फिर भी, तुम्हें साथी कहने का मन नहीं होता  
क्योंकि, इन हादसों में कई सारे वे क्षण भी आए थे 
जब अपने-अपने शब्द-वाण से
हम एक दूसरे की हत्या तक करने को आतुर थे 
अपनी ज़हरीली जिह्वा से  
एक दूसरे का दिल चीर देते थे  
हमारे दरम्यान कई क्षण ऐसे भी आए   
जब ख़ुद को मिटा देने का मन किया  
कई बार हमारा मिलना गहरे ज़ख़्म दे जाता था 
जिसका भरना कभी मुमकिन नहीं हुआ  
हम दुश्मन भी नहीं 
क्योंकि, कई बार अपनी साँसों से 
एक दूसरे की ज़िन्दगी को बचाया है हमने 
अब हमारा अपनापा भी ख़त्म है 
क्योंकि, मुझे इस बात से इंकार है कि हम प्रेम में है 
और तुम्हारा जबरन इसरार कि 
मैं मान लूँ     
''हम प्रेम में हैं और प्रेम में तो यह सब हो ही जाता है'' 
सच है 
हादसों के बिना, हमारा मिलना मुमकिन नहीं
कुछ और हादसों की हिम्मत, अब मुझमें नहीं 
अंततः
पुख्ता फ़ैसला चुपचाप किया है- 
''असंबद्धता ही मुनासिब है''   
अब न कोई जिरह होगी 
न कोई हादसा होगा। 

- जेन्नी शबनम (25. 5. 2014) 
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मंगलवार, 20 मई 2014

457. दुआ के बोल (दुआ पर 5 हाइकु) पुस्तक 56

दुआ के बोल

*******

1. 
फूले व फले
बगिया जीवन की  
जन-जन की। 

2.
दुआ के बोल 
ब्रह्माण्ड में गूँजते 
तभी लगते।  
  
3.
प्रेम जो फले 
अपनों के आशीष  
फूल-से झरें। 

4.
पाँव पखारे 
सुख-शान्ति का जल 
यही कामना। 

5.
फूल के शूल 
कहीं चुभ न जाए 
जी घबराए। 

- जेन्नी शबनम (13. 5. 2014)
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मंगलवार, 13 मई 2014

456. पैसा (15 हाइकु) पुस्तक 54-56

पैसा 

*******

1.
पैसे ने छीने
रिश्ते नए पुराने
पैसा बेदिल।

2.
पैसा गरजा
ग़ैर बने अपने
रिश्ता बरसा।

3.
पैसे की वर्षा
भावनाएँ घोलता
रिश्ता मिटता।

4.
पैसा कन्हैया
मानव है गोपियाँ
खेल दिखाता।

5.
पैसे का भूखा
भरपेट है खाता,
मरता भूखा।

6.
काठ है रिश्ता 
खोखला कर देता
पैसा दीमक।

7.
ताली पीटता
सबको है नचाता
पैसा घमंडी।

8.
पैसा अभागा
कोई नहीं अपना
नाचता रहा।

9.
पैसा है चंदा
रंग बदले काला
फिर भी भाता।

10.
मन की शांति
लूटकर ले गया
पैसा लुटेरा।

11.
मिला जो पड़ा
चींटियों ने झपटा
पैसा शहद।

12.
गुत्थम-गुत्था
इंसान और पैसा
विजयी पैसा।

13.
बने नशेड़ी
जिसने चखा नशा,
पैसा है नशा।

14.
पैसा ज़हर
सब चाहता खाना
हसीं असर

15.
नाच नचावे 
छन-छन छनके 
हाथ न पैर। (पैसा)
  
- जेन्नी शबनम (29. 4. 2014)
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रविवार, 11 मई 2014

455. अवसाद के क्षण

अवसाद के क्षण

***

अवसाद के क्षण 
वैसे ही लुढ़क जाते हैं 
जैसे कड़क धूप के बाद शाम ढलती है
जैसे अमावास के बाद चाँदनी खिलती है 
जैसे अविरल अश्रु के बहने के बाद 
मन में सहजता उतरती है। 
 
जीवन कठिन है 
मगर इतना भी नहीं कि जीते-जीते थक जाएँ 
और फिर ज्योतिष से 
ग्रहों को अपने पक्ष में करने के उपाय पूछें
या फिर सदा के लिए 
स्वयं को स्वयं में समाहित कर लें। 
 
अवसाद भटकाव की दुविधा नहीं 
न पलायन का मार्ग है 
अवसाद ठहरकर चिन्तन का क्षण है 
स्वयं को समझने का 
स्वयं के साथ रहने का अवसर है। 

हर अवसाद में
एक नए आनन्द की उत्पत्ति सम्भावित है
अतः जीवन का ध्येय  
अवसाद को जीकर आनन्द पाना है। 

-जेन्नी शबनम (11.5.2014)
___________________

गुरुवार, 1 मई 2014

454. शासक (पुस्तक -78)

शासक

*******

इतनी क्रूरता, कैसे उपजती है तुममें?
कैसे रच देते हो, इतनी आसानी से चक्रव्यूह 
जहाँ तिलमिलाती हैं, विवशताएँ
और गूँजता है अट्टहास
जीत क्या यही है?
किसी को विवश कर
अधीनता स्थापित करना, अपना वर्चस्व दिखाना  
किसी को भय दिखाकर
प्रताड़ित करना, आधिपत्य जताना
और यह साबित करना कि 
तुम्हें जो मिला, तुम्हारी नियति है  
मुझे जो तुम दे रहे, मेरी नियति है 
मेरे ही कर्मों का प्रतिफल 
किसी जन्म की सज़ा है 
मैं निकृष्ट प्राणी  
जन्मों-जन्मो से, भाग्यहीन, शोषित  
जिसे ईश्वर ने संसार में लाया 
ताकि तुम, सुविधानुसार उपभोग करो
क्योंकि तुम शासक हो
सच है-
शासक होना ईश्वर का वरदान है 
शोषित होना ईश्वर का शाप!

- जेन्नी शबनम (1. 5. 2014)
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सोमवार, 28 अप्रैल 2014

453. गुमसुम ये हवा (स्त्री पर 7 हाइकु) पुस्तक 54

गुमसुम ये हवा 

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1.
गाती है गीत
गुमसुम ये हवा
नारी की व्यथा। 

2.
रोज़ सोचती
बदलेगी क़िस्मत
हारी औरत। 

3.
ख़ूब हँसती
ख़ुद को ही कोसती
दर्द ढाँपती। 

4.
रोज़-ब-रोज़
ख़ाक होती ज़िन्दगी
औरत बंदी। 

5.
जीतनी होगी
युगों पुरानी जंग
औरतें जागी। 

6.
बहुत दूर
आसमान ख़्वाबों का
स्त्रियों का सच।  

7. जीत न पाई
ज़िन्दगी की लड़ाई
मौन स्वीकार। 

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2014)
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