शुक्रवार, 1 मई 2009

56. आँखों में नमी तैरी है (क्षणिका)

आँखों में नमी तैरी है

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बदली घिर रही आसमान में, भादो तो आया नहीं
धुंध पसर रही आँगन में, माघ तो आया नहीं
मानो तपते जेठ की असह्य गरमी हो
घाम से मेरे मन की नरमी पिघली है
मानो सावन का मौसम बिलखता हो
आहत मन से मेरी आँखों में नमी तैरी है

- जेन्नी शबनम (8. 4. 2009)
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सोमवार, 20 अप्रैल 2009

55. ख़ुद पर कैसे लिखूँ

ख़ुद पर कैसे लिखूँ

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कल पूछा किसी ने
मैं दर्द के नग़्मे लिखती हूँ
किसका दर्द है, किसके ग़म में लिखती हूँ
मेरा ग़म नहीं ये, फिर मैं कैसे लिखती हूँ?
सोचती रही, सच में, मैं किस पर लिखती हूँ?

आज अचानक ख़याल आया, ख़ुद पर कुछ लिखूँ
अतीत की कहानी या वक़्त की नाइंसाफ़ी लिखूँ
दर्द, मैं तो उगाई नहीं, रब की मेहरबानी ही लिखूँ,
मेरा होना मेरी कमाई नहीं, ख़ुद पर क्या लिखूँ?

एक प्रश्न-सा उठ गया मन में- मैं कौन हूँ, क्या हूँ?
क्या वो हूँ, जो जन्मी थी, या वो, जो बन गई हूँ
क्या वो हूँ, जो होना चाहती थी, या वो, जो बनने वाली हूँ,
ख़ुद को ही नहीं पहचान पा रही, अब ख़ुद पर कैसे लिखूँ?

जब भी कहीं अपना दर्द बाँटने गई, और भी ले आई
अपने नसीब को क्या कहूँ, उनकी तक़दीर देख सहम गई, 
अपनी पहचान तलाशने में, ख़ुद को जाने कहाँ-कहाँ बिखरा आई
अब अपना पता किससे पूछूँ, सबको अपना आप ख़ुद ही गँवाते पाई

मेरे दर्द के नग़्मे हैं, जहाँ भी उपजते हों, मेरे मन में ठौर पाते हैं
मेरे मन के गीत हैं, जहाँ भी बनते हों, मेरे मन में झंकृत होते हैं
जो है, बस यही है, मेरे दर्द कहो या अपनों के दर्द कहो
ख़ुद पर कहूँ, या अपनों पर कहूँ, मेरे मन में बस यही सब बसते हैं

- जेन्नी शबनम (20. 4. 2009)
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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

54. न तुम भूले, न भूली मैं

न तुम भूले, न भूली मैं

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जिन-जिन राहों से होकर, मेरी तक़दीर चली
थक-थककर तुम्हे ढूँढ़ा, जब जहाँ भी थमी
बार-बार जाने क्यों, मैं हर बार रुकी 

किन-किन बातों का गिला, गई हर बार छली
हार-हार बोझिल मन, मै तो टूट चुकी
डर-डर जाती हूँ क्यों, मैं तो अब हार चुकी 

राहें जुदा-जुदा, डगर तुम बदले, कि भटकी मैं
नसीब है, न मुझे तुमने छला, न मैंने तुम्हें
सच है, न मुझे तुम भूले, न भूली मैं

अब तो आकर कह जाओ, कैसे तुम तक पहुँचूँ मैं
अब तो मिल जाओ तुम, या कि खो जाऊँ मैं
आख़िरी इल्तिज़ा, बस एक बार तुम्हें देखूँ मैं

- जेन्नी शबनम (17. 4. 2009)
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गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

53. क्या बात करें (अनुबन्ध/तुकान्त)

क्या बात करें

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सफ़र ज़िन्दगी का कटता नहीं
एक रात की क्या बात करें 

हाल पूछा नहीं कभी किसी ने
ग़मे-दिल की क्या बात करें 

दर्द का सैलाब है उमड़ता
एक आँसू की क्या बात करें

इक पल ही सही क़रीब तो आओ
तमाम उम्र की क्या बात करें

मिल जाओ कभी राहों में कहीं
तुम्हारी सही अपनी क्या बात करें

एक उम्र तो नाकाफ़ी है
जीवन-पार की क्या बात करें

तुम आ जाओ या कि ख़ुदा
फ़रियाद है 'शब' की, अभी क्या बात करें

-जेन्नी शबनम (मई, 1998)
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बुधवार, 15 अप्रैल 2009

52. मैं और मछली (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 107)

मैं और मछली

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जल-बिन मछली की तड़प
मेरी तड़प क्योंकर बन गई?
उसकी आत्मा की पुकार
मेरे आत्मा में जैसे समा गई

उसकी कराह, चीत्कार, मिन्नत
उसकी बेबसी, तड़प, घुटती साँसें
मौत का ख़ौफ़, अपनों को खोने की पीड़ा
किसी तरह बच जाने को छटपटाता तन और मन 

फिर उसकी अंतिम साँस, बेदम बेजान पड़ा शारीर
और उसके ख़ामोश बदन से, मनता दुनिया का जश्न 

या ख़ुदा! तुमने उसे बनाया, फिर उसकी ऐसी क़िस्मत क्यों?
उसकी वेदना, उसकी पीड़ा, क्यों नहीं समझते?
उसकी नियति भी तो, तुम्हीं बदल सकते हो न!

हर पल मेरे बदन में हज़ारों मछलियाँ
ऐसे ही जनमती और मरती हैं,
उसकी और मेरी तक़दीर एक है
फ़र्क़ महज़ ज़ुबान और बेज़ुबान का है  

वो एक बार कुछ पल तड़पकर दम तोड़ती है
मेरे अन्तस् में हर पल हज़ारों बार दम टूटता है
हर रोज़ हज़ारों मछली मेरे सीने में घुटकर मरती है

बड़ा बेरहम है, ख़ुदा तू
मेरी न सही, उसकी फितरत तो बदल दे!

- जेन्नी शबनम (अगस्त, 2007)
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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

51. रिश्तों का लिबास सहेजना होगा (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 91)

रिश्तों का लिबास सहेजना होगा

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रिश्तों के लिबास में, फिर एक खरोंच लगी
पैबंद लगा के, कुछ दिन और ओढ़ना होगा 

पहले तो छुप जाता था
जब सिर्फ़ सिलाई उघड़ती थी,
कुछ और नये टाँके
फिर नया-सा दिखता था। 

तुरपई कर-कर हाथें थक गईं
कतरन और सब्र भी चूक रहा,
धागे उलझे और सूई टूटी
मन भी अब बेज़ार हुआ। 

डर लगता अब, कल फिर फट न जाए
रफ़ू कहाँ और कैसे करुँगी
हर साधन अब शेष हुआ। 

इस लिबास से बदन नहीं ढँकता
अब नंगा तन और मन हुआ,
ये सब गुज़रा, उससे पहले
क्यों न जीवन का अंत हुआ?

सोचती हूँ, जब तक जीयूँ, आधा पहनूँ
आधा फाड़कर सहेज दूँ,
विदा होऊँगी जब इस जहान से
इसका कफ़न भी तो ओढ़ना होगा। 

रिश्तों के इस लिबास को
आधा-आधा कर सहेजना होगा। 

- जेन्नी शबनम (10. 4. 2009)
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मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

50. रिश्तों की भीड़ (क्षणिका)

रिश्तों की भीड़ 

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रिश्तों की भीड़ में
प्यार गुम हो गया है
प्यार ढूँढ़ती हूँ
बस रिश्ते हाथ आते हैं 

- जेन्नी शबनम (7. 4. 2009)
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49. ज़िन्दगी एक बेशब्द किताब (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 92)

ज़िन्दगी एक बेशब्द किताब

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पन्नों से सिमट, ज़िन्दगी, हाशिए पर आ पहुँची
हसरतें हाशिए से, किताब तक जा पहुँची,
मालूम नहीं ज़िन्दगी की इबारत स्याह थी
या कि स्याही का रंग फीका था
शब्द अलिखित रह गए। 

शायद ज़िन्दगी, किताब के पन्नों से निकल
अपना वजूद ढूँढ़ने चल पड़ी,
किताब की इबारत और हाशिए क्या
अब तो शीर्षक भी लुप्त हो गए,
ज़िन्दगी बस, काग़ज़ का पुलिंदा भर रह गई,
जिसमें स्याही के कुछ बदरंग धब्बे और
हाशिए पर कुछ आड़े-तिरछे निशान छूट गए। 

शब्द-शब्द ढूँढ़कर, एहसासों की स्याही से
पन्नों पर उकेरी थी अपनी ज़िन्दगी,
सोचती थी, कभी तो कोई पढ़ेगा मेरी ज़िन्दगी,
बेशब्द बेरंग पन्ने
कोई कैसे पढ़े?

क्या मालूम, स्याही फीकी क्यों पड़ गई?
क्या मालूम, ज़िन्दगी की इबारत धुँधली क्यों हो गई?
क्या मालूम, मेरी किताब रद्दी क्यों हो गई?

शायद मेरी किताब और मेरी ज़िन्दगी
सफ़ेद-स्याह पन्नों की अलिखित कहानी है!
मेरी ज़िन्दगी एक बेशब्द किताब है!

- जेन्नी शबनम (2. 4. 2009)
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रविवार, 5 अप्रैल 2009

48. वक़्त मिले न मिले (क्षणिका)

वक़्त मिले न मिले 

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जो भी लम्हा मिले, चुन-चुनकर बटोरती हूँ
दामन में अपने जतन से सहेजती हूँ,
न जाने फिर कभी वक़्त मिले न मिले

- जेन्नी शबनम (1. 4. 2009)
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मंगलवार, 31 मार्च 2009

47. बीती यादें

बीती यादें

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याद आता है वो लम्हा बार-बार
जब तुमने
अपने दिल की बात कही थी

मैंने तुम्हें सिर्फ़ देखा
उत्तर न तो 'ना' था
न ही कोई बोल फूटा था

तुम मौन की भाषा समझ गए
मौन स्वीकृति का प्रतीक है
यह तुम भी जान गए थे

निर्विरोध मौन गूँजता रहा
तुम सही थे
इसे मैंने भी समझा था

और हमारे बीच
वो विचित्र बंधन बँध गया
जो देव-दुर्लभ दिव्य अनुभूति बन
सदा के लिए हमारे मन-प्राण को
सिक्त कर गया। 

- जेन्नी शबनम (दिसम्बर 2007)
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46. चुनाव! नेता!

चुनाव! नेता!

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राजनीति का दामन थामे, चलते कूटनीति की चाल
बड़ा कठिन है समझना इनको, चलते ऐसी-ऐसी चाल    

पूरे औरत-मर्द और आधे औरत-मर्द से अलग
एक नई बनी आदमी की जात,
हो जिनको दाँव-पेंच में महारत हासिल
ये हैं वो राजनीति के पंडित जात    

सिंहासन के पीछे-पीछे, नेता जी ऐसे भागते बदहवास
जैसे लाल कपड़ों के पीछे, सरपट भागे भड़का साँड़,
मज़हब-मज़हब, देश-देश का खेलते घृणित खेल
जैसे भूखे शेर और मेमनों के बीच होता खूँखार खेल    

हँसुआ से गेहूँ की बाली काटे, एक अकेला बेचारा हाथ
अपने कीचड़ से गँदले होते, सारे कमल एक साथ,
करो सवारी साइकिल पर, या हाथी पर हो सवार
लालटेन युग में आ पहुँचे, अब कैसे कटे सबकी रात   

हर पाँचवें वर्ष का है ये महोत्सव, बोली लगती जनता की
बिल में से निकल-निकल नेता जी, अब हाथ जोड़ते जनता की    
अब चाहे जो झपट ले गद्दी, बचेगी न मुल्क की आन
हर चिह्न आज़मा के हारी, अब तो इससे भली लगती, वही अँग्रेज़ी राज   

- जेन्नी शबनम (2005)
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सोमवार, 30 मार्च 2009

45. कामना

कामना

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चाहती हूँ तुम देखो ज़िन्दगी
मेरी नज़रों से
मेरी चाहतों से
मेरी समस्त कामनाओं से  

समझ सकोगे तुम कैसे?
तुम पुरुष हो
ख़ुदा हुए भी तो क्या
तुम बेबस हो   

तुम्हें वो आँखें न मिली
जो मेरे सपनों को देख सके
वो दिल न पाया
जो मेरे एहसासों को समझ सके   

तुम लाचार हो
मन से अपाहिज हो,
नहीं सँभाल सकते
एक औरत की कामना  

- जेन्नी शबनम (दिसंबर 2008)
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शुक्रवार, 27 मार्च 2009

44. हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी बेकार है पड़ी (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 103)

हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी बेकार है पड़ी

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हँसी बेकार पड़ी है, यूँ ही कोने में कहीं
ख़ुशी ग़मगीन रखी है, ज़ीने में कहीं
ज़िन्दगी गुमसुम खड़ी है, अँगने में कहीं,
अपने इस्तेमाल की आस लगाए
ठिठके सहमे से हैं सभी

सब कहते, सच ही कहते
कंजूस हैं हम, कायर हैं हम
सहेज सँभाल रखते, ख़र्च नहीं करते हम
अपनी हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी

हमने सोचा था
जब ज़रूरत हो, इस्तेमाल कर लेंगे
वरना सँभाल रखेंगे, जन्म-जन्मांतर तक
कहीं ख़र्च न हो जाए, फ़िजूल ये सभी

आज ज़रूरत पड़ी
चाहा कि सब उठा लाएँ
डूब जाएँ उसमें, ख़ूब जी जाएँ

पर ये क्या हुआ?
हँसी रूठ गई, ख़ुशी डर गई
ज़िन्दगी मुरझा गई, सब बेकाम हो गई
बेइस्तेमाल स्वतः नष्ट हो गई

सचमुच, हम कायर हैं, कंजूस हैं
यूँ ही पड़े-पड़े बर्बाद हो गई
हमारी हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी

अब जाना, संरक्षित नहीं होती
न ही सदियाँ ठहरती हैं
हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी
सहेजते, सँभालते और सँजोते
सब विदा हो रही!

जब वक़्त था तो जिया नहीं
अब चाहा तो कुछ बचा नहीं,
हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी
यूँ ही बेकार, अब है पड़ी

- जेन्नी शबनम (जून 2006)
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बुधवार, 25 मार्च 2009

43. अपंगता (क्षणिका)

अपंगता

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एक अपंगता होती तन की
जिसे मिलती बहुत करुणा, जग की  
एक अपंगता होती मन की
जिसे नहीं मिलती संवेदना, जग की  
तन की व्यथा दुनिया जाने 
मन की व्यथा कौन पहचाने?
तन की दुर्बलता का है समाधान
विकल्प भी हैं मौजूद हज़ार,
मन की दुर्बलता का नहीं कोई विकल्प
बस एक समाधान- प्यार, प्यार और प्यार। 

- जेन्नी शबनम (अक्टूबर, 2006)
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मंगलवार, 24 मार्च 2009

42. दुआ (क्षणिका)

दुआ 

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कोई शख्स ज़ख़्म देता, कुरेदकर नासूर बनाता
फिर कहता- "अल्लाह! उसे जन्नत बख़्श दो!"
क्या कहूँ उस ज़ालिम को 
अज़ीज़ या रक़ीब? 
जिसे जहन्नुम भी जन्नत-सा लगे
जिसे ग़ैरों के दर्द में आराम मिले,  
जाने ये कौन सी दुआ है 
जो दोज़ख़ की आग में झोंकती है
और कहती- ''जाओ जन्नत पाओ, सुकून पाओ!''

- जेन्नी शबनम (23. 3. 2009) 
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सोमवार, 23 मार्च 2009

41. यकीन

यकीन

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चाहती हूँ, यकीन कर लूँ
तुम पर और अपने आप पर
ख़ुदा की गवाही का भ्रम
और तुमसे बाबस्ता मेरी ज़िन्दगी
दोनों ही तक़दीर है
हँसूँ या रोऊँ
कैसे समझाऊँ दिल को?
एक कशमकश-सी है ज़िन्दगी
एक प्रश्नचिह्न-सा है जीवन
हर लम्हा, सारे जज़्बात, क़ैदी हैं
ज़ंजीरें टूट गईं
पर आज़ादी कहाँ?
कैसे यकीन करूँ
खुद पर और तुम पर,
तुम भी सच हो
और ज़िन्दगी भी

- जेन्नी शबनम (22. 3. 2009)
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रविवार, 22 मार्च 2009

40. बुत और काया (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 101)

बुत और काया

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ख़यालों के बुत ने
अरमान के होंठों को चूम लिया,
काले लिबास-सी वो रात
तमन्नाओं की रौशनी में नहा गई 

बुत की रूह और काया
पल भर को साथ मिले,
आँखों में शरारत हुई
हाथों से हाथ मिले,
प्रेम की अगन जली
क़यामत-सी बात हुई,
फिर मिलने के वादे हुए
याद रखने के इरादे हुए 

बिछुड़ने का वक़्त जब आया
दोनों के हाथ दुआ को उठे,
चेहरे पे उदासी छाई
आँखों में नमी पिघली,
दर्द मुस्कान बन उभरा
चुप-सी रात ज़रा-सी ठिठकी,
एक दूसरे के सीने में छुप
वे आँसू छुपाए ग़म भुलाए 

फिर बुत के अरमान
उसकी अपनी रूह
बुत की काया में समा गई,
फिर कभी न मिलने के लिए 

- जेन्नी शबनम (21. 3. 2009)
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39. अवैध सम्बन्ध

अवैध सम्बन्ध

(वर्षों पूर्व लिखी यह रचना, साझा कर रही हूँ। कानून और समाज में वैधता-अवैधता की परिभाषा चाहे जो हो, मेरी नज़र में हम सभी ख़ुद में एक अवैध रिश्ता जीते हैं; क्योंकि मन के ख़िलाफ़ जीना सबसे बड़ी अवैधता है और हम किसी-न-किसी रूप में ऐसे जीने को विवश हैं।) 

***

मेरी आत्मा और मेरा वजूद दो स्वतन्त्र अस्तित्व है
और शायद दोनों में अवैध सम्बन्ध है
नहीं! शायद मेरा ही मुझसे अवैध सम्बन्ध है

मेरी आत्मा मेरे वजूद को सहन नहीं कर पाती है 
और मेरा वजूद सदैव
मेरी आत्मा का तिरस्कार करता है

दो विपरीत अस्तित्व एक साथ मुझमें बस गए
आत्मा और वजूद के झगड़े में उलझ गए
एक साथ दोनों जीवन मैं जी रही
आत्मा और वजूद को एक साथ ढो रही

मेरा मैं न तो पूर्णतः आत्मा को प्राप्त है
न ही वजूद का एकाधिकार है
और बस यही मेरा मुझसे अवैध सम्बन्ध है

एक द्वंद्व, एक समझौता, जीवन जीने का अथक प्रयास
कानून और समाज की नज़र में यही तो वैध सम्बन्ध है

दो वैध रिश्तों का ये कैसा अवैध सम्बन्ध है?
स्वयं मेरी नज़र में मेरा मुझसे अवैध सम्बन्ध है

- जेन्नी शबनम (नवम्बर, 1992)
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गुरुवार, 19 मार्च 2009

38. हम अब भी जीते हैं (तुकान्त)

हम अब भी जीते हैं

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इश्क़ की हद, पूछते हैं आप बारहा हमसे
क्या पता, हम तो हर सरहदों के पार जीते हैं  

इश्क़ की रस्म से अनजान, आप भी तो नहीं
क्या कहें, हम कहाँ कभी ख़्वाबों में जीते हैं  

इश्क़ की इंतिहा, देख लीजिए आप भी
क्या हुआ गर, जो हम फिर भी जीते हैं  

इश्क़ में मिट जाने का, 'शब' और क्या अंदाज़ हो
क्या ये कम नहीं, कि हम अब भी जीते हैं  

- जेन्नी शबनम (19. 3. 2009)
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37. ख़ुद को बचा लाई हूँ (क्षणिका)

ख़ुद को बचा लाई हूँ 

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कुछ टुकड़े हैं अतीत के
रेहन रख आई हूँ, ख़ुद को बचा लाई हूँ  
साबुत माँगते हो, मुझसे मुझको
लो सँभाल लो अब, ख़ुद को जितना बचा पाई हूँ  

- जेन्नी शबनम (18. 3. 2009)
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रविवार, 8 मार्च 2009

36. एक गीत तुम गाओ न

एक गीत तुम गाओ न

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एक गीत तुम गाओ न!
एक ऐसा गीत गाओ कि -
मेरे पाँव उठ चल पड़े, घायल पड़े हैं कब से
हाथों में ताक़त आ जाए, छीन लिए गए हैं बल से
पंख फिर उग जाए, कतर दिए गए हैं छल से
सपनों को ज़मीं मिल जाए, उजाड़े गए हैं सदियों से
आत्मा जी जाए, मारी गई हैं युगों से। 

तुम गाओगे न ऐसा गीत?
एक ऐसा गीत ज़रूर गाना!

मैं रहूँ न रहूँ
पर तुम्हारे गीत से जब भी कोई जी उठे -
मैं उसके मन में जन्मूँगी
तुम्हारे गीत गुनगुनाऊँगी
स्वछंद आकाश में उडूँगी
प्रेम का जहान बसाऊँगी
युगों से बेजान थी, सदियों तक जीऊँगी। 

तुम गाओगे न ऐसा एक गीत?
मेरे लिए गा दो न एक गीत! 

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2009)
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर)
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35. कल रात (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 29)

कल रात

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कल तमाम रात
मैंने तुमसे बातें की थी 

तुम सुनो कि न सुनो, ये मैंने सोचा नहीं
तुम जवाब न दोगे, ये भी मैंने सोचा नहीं,
तुम मेरे पास न थे, तुम मेरे साथ तो थे 

कल हमारे साथ, रात भी जागी थी
वक़्त भी जागा, और रूह भी जागी थी,
कल तमाम रात, मैंने तुमसे बातें की थी। 

कितना ख़ुशगवार मौसम था
रात की स्याह चादर में
चाँदनी लिपट आई थी
और तारे खिल गए थे। 

हमारी रूहों के बीच
ख़यालों का काफ़िला था
सवालों जवाबों की लम्बी फ़ेहरिस्त थी
चाहतों की, लम्बी क़तार थी। 

तुम्हारे शब्द ख़ामोश थे
तुम सुन रहे थे न
जो मैंने तुमसे कहा था!

तुम्हें हो कि न हो याद
पर, मेरे तसव्वुर में बस गई
कल की हमारी हर बात
कल की हमारी रात। 

कल तमाम रात
मैंने तुमसे बातें की थी। 

- जेन्नी शबनम (1. 3. 2009)
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34. कुछ पता नहीं

कुछ पता नहीं

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बेइंतिहा जीने के जुनून में
ज़िन्दगी कब कहाँ छूट गई
कुछ होश नहीं।   

कारवाँ आता रहा, जाता रहा
कोई अपना, कब बिछुड़ा
कुछ ख़बर नहीं।   

न मेरी ज़िद की बात थी, न तुम्हारी ज़िद की
ज़िन्दगी कब, ज़िल्लत बन गई
कुछ समझ नहीं।   

सागर के दो किनारों की तरह
ज़िन्दगी बँट गई
रोक सकूँ, दम नहीं।    

तूफ़ानों की गर्द
हमारे दिलों में, कब बस गई
हमें एहसास भी नहीं।   

हम भटक गए, कब, क्यों, भटक गए
कोई अंदाज़ा नहीं
कुछ पता नहीं।   

ज़िन्दगी रूठ गई, बस रूठ गई
दर्द है, शिकवा है, ख़ुद से है
कुछ तुमसे नहीं।   

तुम्हें हो कि न हो, मुझे है
गिला है, शिकायत है,
क्या तुम्हें कुछ नहीं?

- जेन्नी शबनम (7. 3. 2009)
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शुक्रवार, 6 मार्च 2009

33. ख़ुशनसीबी की हँसी (क्षणिका)

ख़ुशनसीबी की हँसी 

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चोट जब दिल पर लगती है
एक आह-सी उठती है, एक चिंगारी, दहकती है
चुपके से दिल रोता है और एक हँसी गूँजती है। 
सब पूछते- बहुत ख़ुश हो क्यों?
मैं कहती- ये ख़ुशनसीबी की हँसी है
और चुपचाप एक आँसू दिल में उतरता है।  

- जेन्नी शबनम (नवम्बर 1995)
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रविवार, 1 मार्च 2009

32. अपनी हर बात कही (अनुबन्ध/तुकान्त)

अपनी हर बात कही

***

समेट ख़ुद को सीने में उसके, अपने सारे हालात कही
तर कर उसका सीना, अपने मन की बात कही। 

शाया किया अपने सुख-दुःख, उसके ईमान पर
पढ़ ले मेरा हर ग़म, बिना शब्द हर बात कही। 

आस भरी नज़रें उठीं जब, उसकी बाहें थामने को
अपने सीने से लिपटी, ख़ुद से अपनी हर बात कही। 

अच्छा है कोई न जाना, ये मेरा अपना संसार 
आस-पास नहीं है कोई, ख़ुद से अपनी हर बात कही। 

बिन सरोकार सुने क्यों कोई, एक उम्र की बात नहीं
जवाब से परे हर सवाल है, फिर भी अपनी हर बात कही। 

जन्मों का हिसाब है करना, जाने क्या-क्या और है कहना
रोज़ लिपटती, रोज़ सुबकती, 'शब' ख़ुद से ही हर बात कही। 

-जेन्नी शबनम (17. 9. 2008)
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शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

31. चुप (क्षणिका)

चुप 

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एक सब्र मन का, उतर गया है आँखों पर
एक सब्र बदन का, ओढ़ लिया है ज़िन्दगी पर
एक चुप पी ली है, अपने होंठों से
एक चुप चुरा ली है, अपनी ज़िन्दगी से  

- जेन्नी शबनम (25. 2. 2009)
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गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

30. लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त

लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त

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लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त
सिर्फ़ तुम्हारे लिए, मेरा ख़त
मेरी स्याही मेरे ज़ख़्मों से रिसती है
जिससे तुम्हारे मन पे मैंने तहरीर रची है  

हर जज़्बात मेरे, कुछ एहसास-ए-बयाँ करते हैं
ज़माना ना समझे, इसीलिए तो तुम्हीं से कहते हैं 
तुम्हारी नज़रें हर हर्फ़ में ख़ुद को तलाश रही हैं 
यकीन है, मेरी हर इबारत तुमसे कुछ कह रही है  

जब कभी मेरे ख़त ना पहुँचे, आँखें नम कर लेना
शायद अब निजात मिली मुझे, सब्र तुम कर लेना 
समझना, मेरी रूह को ज़मानत मिल गई
ख़ुदा से रहम और रिहाई की मंज़ूरी, मुझे मिल गई 

मेरे तुम्हारे बीच, मेरे ख़त ही तो सिर्फ़ एक ज़रिया है
मैं ना रही अब, ये बताने का बस यही एक ज़रिया है 
चाहे जितने तुम पाषाण बनो, थोड़ा तुम्हें भी रुलाना है
नहीं आऊँगी फिर कभी, जश्न मुझे भी तो मनाना है 

मैं फिर भी रोज़ एक ख़त लिखूँगी
चाहे जैसे भी हो तुम तक पहुँचा दूँगी 
ये एक नयी आदत तुम पाल लेना
हवाओं में तैरती मेरी पुकार तुम सुन लेना 
ठंडी बयार जब चुपके से कानों को सहलाए
समझना मैंने तुम्हें अपने ख़त सुनाए  

मेरे हर गुज़रे लम्हे और ख़त अपने सीने में दफ़न कर लेना
सफ़र पूरा कर जब तुम आओ, मुझे उन ख़तों से पहचान लेना 
कभी ख़त जो न लिख पाऊँ, ताकीद तुम करना नहीं
मान लेना पुराना ज़ख़्म पिघला नहीं
और नया ज़ख़्म अभी जमा नहीं  

लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त
सिर्फ़ तुम्हारे लिए मेरा ख़त

- जेन्नी शबनम (16. 9. 2008)
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29. नफ़रत के बीज

नफ़रत के बीज

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नफ़रत के बड़े-बड़े पेड़ उगे हैं, हर कहीं
इन्सान के अलग-अलग रूपों में 
ये बीज हमने कब बोए?

सोचती हूँ -
ख़ुदा ने ज़मीन पर आदम और हव्वा को भेजा
उनके वर्जित फल खाने से इन्सान जन्मा
वह वर्जित फल उन्होंने भूख के लिए खाया होगा
लड़कर आधा-आधा
न कि मनचाही संतान के लिए प्रेम से आधा-आधा। 

शायद उनके बीच जब तीसरा आया 
उन्हें नफ़रत हो गई हो उससे  
इसी नफ़रत के कारण 
इन्सान के चेतन-अचेतन मन में बस गया 
ईर्ष्या, द्वेष, आधिपत्य, बदला, दुश्मनी
हत्या, दुराचार, घृणा, क्रोध, प्रतिशोध। 

नफ़रत की ही इन्तिहा है
जब इसकी हदें इन्सानी रिश्तों को पारकर
सियासत, मुल्कों, क़ौमों तक जा पहुँची। 

पहले बीज से अनगिनत पौधे बनते गए
हर युग में नफ़रत के पेड़ फैलते गए। 

सत्ययुग, द्वापर, त्रेता, कलियुग
ऋषि-मुनि, सदाचारी-दुराचारी, राजा-रंक, देवी-देवता
सुर-असुर, राम-रावण, कृष्ण-कंस, कौरव-पाण्डव 
से लेकर आज तक का जाति, वर्ण और क़ौमी विभाजन
स्त्री-पुरुष का मानसिक विभाजन
दैविक शक्ति से लेकर हथियार
अब परमाणु विभीषिका। 

कैसे कहें कि नफ़रत हमने आज पैदा की 
हमने सदियों-युगों से नफ़रत के बीज को
पौधे से पेड़ बनाया
उन्हें जीवित रहने और जड़ फैलाने में
सहूलियत व मदद दी
जबकि उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना था। 

सोचती हूँ -
ख़ुदा ने आदम और हव्वा में पहले चेतना दी होती
और उस वर्जित फल को खिलाकर
मोहब्बत भरे इन्सान से संसार बसाया होता। 

सोचती हूँ, काश! ऐसा होता। 

- जेन्नी शबनम (14.9.2008)
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28. शाइर

शाइर

*******

शाइर के अल्फ़ाज़ में
जाने किसकी रूह तड़पती है
हर हर्फ़ में जाने कौन सिसकता है
ख़्वाबों में जाने कौन पनाह लेता है

किसका अफ़साना लिए वो लम्हा-लम्हा जलता है
किसका दर्द वो अपने लफ़्ज़ों में पिरोता है
किसका जीवन वो यादों में पल-पल जीता है

शायद जज़्बाती है, रूहानी है, वो इंसान है
शायद मासूम है, मायूस है, वो बेमिसाल है
इसीलिए तो ग़ैरों के आँसू अपने शब्दों से पोंछता है
और दुनिया का ज़ख़्म सहेजकर शाइर कहलाता है । 

- जेन्नी शबनम (सितम्बर 5, 2008)
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27. मैं आज ग़ज़लों की किताब बनूँगी

मैं आज ग़ज़लों की किताब बनूँगी

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आज मैं कोरा काग़ज़ बनूँगी   
या कैनवास का रूप धरुँगी,   
आज किसी के कलम की स्याही बनूँगी   
या इन्द्रधनुष-सी खिलूँगी,   
आज कोई मुझसे मुझपर अपना गीत लिखेगा   
या मुझसे मुझपर अपना रंग भरेगा,   
आज कोई मुझसे अपना दर्द बाँटेगा   
या मुझपर अपने सपनों का अक्स उकेरेगा,   
आज किसी के नज़्मों में बसूँगी   
या किसी के रूह में पनाह लूँगी,   
आज कोई पुराना नाता पिघलेगा   
या कोई नया ग़म निखरेगा,   
आज किसी पर पहला ज़ुल्म ढाऊँगी,   
या अपना आख़िरी जुर्म करुँगी,   
आज कोई नया इतिहास रचेगा   
या मैं उसके सपने को रँगूँगी,   
आज किसी के दामन में अपनी अंतिम साँस भरूँगी   
या ख़ुद को बहाकर उसके रक्त में जा पसरूँगी,   
आज ख़ुद को बिखराकर ग़ज़लों की किताब बनूँगी   
या आज ख़ुद को रँगकर उस ग्रन्थ को सँवार दूँगी,   
मैं आज ग़ज़लों की किताब बनूँगी!   
मैं आज ग़ज़लों की किताब बनूँगी!   

- जेन्नी शबनम (8. 9. 2008) 
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बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

26. ख़ुदा की नाइन्साफ़ी

ख़ुदा की नाइन्साफ़ी 

***

ख़ुदा ने बनाए दो इन्सान, स्त्री और मर्द दो जात
सब कुछ बाँटना था आधा-आधा 
जी सकें प्यार से जीवन पूरा
पर ख़ुदा भी तो मर्द जात था, नाइन्साफ़ी कर गया
सुख-दुःख के बँटवारे में, बेईमानी कर गया

जिस्म और ताक़त का मसला
उसके समझ से परे रहा
स्त्री को जिस्म, जज़्बात और बुत बन जाने का नसीब दिया
मर्द को ताक़त, तक़दीर और हुकूमत करने का हक़ दिया

ऐ ख़ुदा! मर्द की इस दुनिया से बाहर निकल
ख़ुदा नहीं, इन्सान बनकर इस जहान को देख। 

क्यों नहीं काँपती रूह तुम्हारी?
जब तुम्हारी बसाई दुनिया की स्त्री बिलखती है
युगों से तड़पती कराह रही है
ख़ामोशी से सिसकती, ज़ख़्म सिलती है

ऐ ख़ुदा! तुम मन्दिर-मस्जिद-गिरिजा में बँटे, आराध्य बने बैठे हो
नासमझों की भीड़ में मूक बने, सदियों से तमाशा देखते हो। 

क्या तुम्हें दर्द नहीं होता?
जब अजन्मी कन्या मरती है
जब नई ब्याहता जलती है
जब नारी की लाज उघड़ती है
जब स्त्री की दुनिया उजड़ती है
जब महिला सवालों की ज़िन्दगी से घबराकर
मौत के गले लगती है

ऐ ख़ुदा! मैं मग़रूर ठहरी, नहीं पूजती तुमको
मेरी न सुनो, कोई बात नहीं 
उनकी तो सुनो, जो तुमसे आस लगाए युगों से पूजते हैं
तुम्हारे सज्दे में करोड़ों सिर झुकते हैं
जो तुम्हारे अस्तित्व की रक्षा में जान लेते और गँवाते हैं

ऐ ख़ुदा! क्या तुम संवेदना-शून्य हो या अस्तित्वहीन हो?
तुम्हारी आस्था में लोग भ्रमित और चेतना-विहीन हो गए हैं
क्या समझूँ, किसे समझाऊँ, किसी को कैसे करवाऊँ 
तुम्हारे पक्षपात और निरंकुशता का भान। 

मेरे मन का द्वंद्व दूर हुआ, समझ गई तुम्हारा रूप
तुम कोई उद्धारक नहीं और न हो शक्ति के अवतार
तुम हो बस धर्म-ग्रंथों के पात्र मात्र। 

- जेन्नी शबनम (7.9.2008)
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25. अधूरी कविता

अधूरी कविता

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तुम कहते -
सुनाओ कुछ अपनी कविता,
कैसे कहूँ
अब होती नहीं पूरी, मेरी कविता

अधूरी कविता अब बन गई ज़िन्दगी
जैसे अटक गए हों लफ़्ज़ ज़ुबाँ पे,
उलझी-उलझी बातें हैं
कुछ अनकहे अफ़साने हैं
दर्द के गीत और पथरीली राहें हैं

तुम क्या करोगे सुन मेरी कविता?
क्या जोड़ोगे कुछ अल्फ़ाज़ नए
ताकि कर सको पूरी, मेरी कविता

तुम वो दर्द कहाँ ढूँढ़ पाओगे?
तुम बे-इंतिहा प्रेम की प्यास कैसे जगाओगे?
अपनी आँखों से मेरी दुनिया कैसे देखोगे?
मेरी ज़िन्दगी का एहसास कहाँ कर पाओगे?

ज़िद करते हो
तो सुन लो, मेरी आधी कविता
ज़िद ना करो
पढ़ लो, आधी ही कविता

गर समझ सको ज़रा भी तुम
मेरी आधी-अधूरी कविता,
वाह-वाही के शब्द, न वारना मुझ पर
ज़ख़्मों को मेरे, यूँ न उभारना मुझ पर

पलभर को मेरी रूह में समा
पूर्ण कर दो मेरी कविता
तुम जानते तो हो
मेरी अधूरी ज़िन्दगी ही है
मेरी अधूरी कविता

- जेन्नी शबनम (4. 9. 2008)
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24. थक गई मैं

थक गई मैं

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वादा किया उसने 
उम्रभर साथ निभाने का 
लम्हों का सफ़र और रुसवा हो गया वो
जाने वादाखिलाफ़ी थी या अंत क़रीब मेरा
डर गया था वो

एक पाँव जीवन की दहलीज़ पर
दूसरा पाँव मौत की सरहद पर 
आज साथ सफ़र ख़त्म करती अपना

जीकर मौत का सफ़र देखा, शुक्रिया ख़ुदा!
अब तो जीने-मरने के खेल से उबार मुझे, ओ ख़ुदा!

ओ ख़ुदाया! तुम्हारे साथ सारे युग घुम आई
मैं तो थक गई, जाने तू क्यों न थका?

एक बार मेरी आत्मा में समा
और मेरी नज़र से देख
तू सहम न गया तो
ऐ ख़ुदा! तेरी क़सम
एक और जन्म क़ुबूल हमें !

- जेन्नी शबनम (3. 9. 2008)
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23. रात का नाता मुझसे

रात का नाता मुझसे

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मेरी कराह का नाता है
रातों से, जाने कितना गहरा
ख़ामोशी से सुनती और साथ मेरे जागती है

हौले से थाम मेरी बाहें
सुबह होने तक, साथ मेरे रोती है
आँसुओं से तर मेरी रूह को
रात अपने आगोश में पनाह देती है
कभी थपकी दे
ख़ुद जाग, हमें सुला देती है
मेरी दास्ताँ
रात अपने अँधियारे में छुपा लेती है

जाने ये कैसा नाता है?
क्यों वो इतने क़रीब है ?
रात की बाँहों में कहीं चाँदनी
कहीं लाखों सितारे
फिर क्यों, बिसरा कर ये रूहानी बातें
संग आ जाती मेरे मातम में, ये रातें

कुछ तो गहरा नाता है
मेरी तरह वो भी पनाह ढूँढ़ती शायद
मेरी तरह अकेली उदास शायद
इसी लिए एक दूसरे को ढाढ़स देने
रोज़ चुपके से आ जाती रातें
मिल बाँट दुःख-दर्द अपना
बसर होती संग रातें

रात का नाता मुझसे
सुबह की किरणों संग
हँसना है

- जेन्नी शबनम (2. 9. 2008)
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22. मुहब्बत! पहला लफ़्ज़

मुहब्बत! पहला लफ़्ज़

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मुहब्बत ही था पहला लफ़्ज़, जो कहा तुमने   
अजनबी थे, जब पहली ही बार हम मिले थे।   
कुछ भी साथ नहीं, क्षत-विक्षत मन था   
जाने कब-कब, कहाँ-कहाँ, किसने तोड़ा था।   
सारे टुकड़ों को, उस दिन से समेट रही   
आख़िर किस टुकड़े से कहा था तुमने, सोच रही।   
रावण के सिर-सा, मेरे मन का टुकड़ा   
बढ़ता जा रहा, फैलता जा रहा।   
अपने एक साबुत मन को, तलाशने में   
जिस्म और वक़्त थकता जा रहा।   
तुम्हीं ढूँढ़ दो न, मैं कैसे पहचानूँ?   
ख़ुद को भी भूल चुकी, अब मैं क्या करूँ?   
तुम्हें तो पहचान होगी न उसकी   
तुम्हीं ने तो देखा था उसे पहली बार।   
हज़ारों में से एक को पहचाना था तुमने   
तभी तो कहा था तुमने   
मुहब्बत का लफ़्ज़, पहली बार।

- जेन्नी शबनम (24. 2. 2009)
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मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

21. घर

घर

***

शून्य को ईंट-गारे से घेर, घर बनाना
एक भ्रम ही तो है
बेजान दीवारों से घर नहीं, महज़ आशियाना बनता है
घरों को मकान बनते अक्सर देखा है
मकान का घर बनना, ख़्वाबों-सा लगता है

न राम-सीता का घर बसा कभी
वरना ग़ैर के आरोप से घर न टूटता कभी
न कृष्ण का घर बसा कभी
वरना हज़ारों रानियों-पटरानियों से महल न सजता कभी
न राजमहलों को घर बनते सुना कभी
वरना रास-रंग न गूँजता कभी

देखा है कभी-कभी यों ही 
किसी फुटपाथ पर घर बसते हुए
फटे चिथड़ों और टूटी बरसाती से घर सजते हुए
रिश्तों की आँच और अपनेपन की छाँव से घर सँवरते हुए

ईंट की अँगीठी पर सूखी रोटी सेंकती, मुस्कुराती औरत
टूटी चारपाई पर अधनंगे बच्चे की किलकारी
थका-हारा-पस्त, पर ठहरा हुआ इन्सान 
उनका अटूट बन्धन, जो ओट देता हर थपेड़े से  
और बस जाता है एक घर

झोपड़ी-महल का फ़र्क़ नहीं, न ईंट-पत्थरों का है दोष
जज़्बात और यक़ीन की बुनियाद हो 
तो यों ही किसी वीराने में या आसमान तले 
बस जाता है घर

- जेन्नी शबनम (14.2.2009)
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20. अच्छा हुआ तुम न आए

अच्छा हुआ तुम न आए

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अच्छा हुआ जो तुम न आए
आदत थी तुम्हारी हमें
सदा पास रहने की
साथ जीने की

तुम्हारा न आना
अच्छा तो न लगा
पर अच्छा हुआ, जो तुम न आए
आदत थी तुम्हारी हमें

तुम्हें दूर जाना था, हमें जीना था
तुम बताओ, बिना दर्द कोई जीता है क्या?
अच्छा हुआ जो तुम न आए
आदत थी तुम्हारी हमें

कितने जन्मों का साथ है?
कब तक मेरे साथ होते तुम?
अच्छा हुआ जो तुम न आए
आदत थी तुम्हारी हमें

इस जीवन से मुक्ति पाना है
गर तुम आते, तो फिर एक बहाना जीने का
अच्छा हुआ जो तुम न आए
आदत थी तुम्हारी हमें

तुम वापस न आओ
जाओ कभी न आओ
जीने दो हमें अपने संग
बिना तुम्हारी आदत!

- जेन्नी शबनम (22. 2. 2009)
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19. अनुत्तरित प्रश्न है (क्षणिका)

अनुत्तरित प्रश्न है 

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अनुत्तरित प्रश्न है-
अहमियत क्या है मेरी?
कच्चा गोश्त हूँ, पिघलता जिस्म हूँ
बेजान बदन हूँ, भटकती रूह हूँ
या किसी के ख़्वाहिशों की बुत हूँ?
क्या कभी किसी के लिए इंसान हूँ?

- जेन्नी शबनम (21. 2. 2009)
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18. मेरी आज़माइश करते हो (अनुबन्ध/तुकान्त) (पुस्तक-नवधा)

मेरी आज़माइश करते हो

***

ग़ैरों के सामने इश्क़ की नुमाइश करते हो
क्यों भला ज़िन्दगी की फ़रमाइश करते हो

इश्क़ करते नहीं ईमान से तुम कभी 
और ख़ुद ही उस ख़ुदा से नालिश करते हो

ग़ैरों की जमात के तुम मुसाफ़िर हो
अपनों में आशियाँ की गुंजाइश करते हो 

ज़ख़्म गहरा देते हो हर मुलाक़ात के बाद
और फिर भी मिलने की गुज़ारिश करते हो 

इक पहर का साथ तो मुमकिन नहीं
मुक़म्मल ज़िन्दगी की ख़्वाहिश करते हो 

तुम्हें तो आदत है बेवफ़ाई करने की
और 'शब' की वफ़ा की आज़माइश करते हो 

-जेन्नी शबनम (16. 2. 2009)
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17. मेरा अपना कुछ (क्षणिका)

मेरा अपना कुछ

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मेरा अपना एक टुकड़ा सूरज-चाँद है
एक कतरा धरती-आसमान है
कुछ छींटे सुर्ख़ उजाले, कुछ स्याह अँधियारे हैं
कुछ ख़ुशी के नग़्मे, कुछ दास्ताँ ग़मगीन हैं
थोड़े नासमझी के हश्र, थोड़े काबिलियत के फ़ख्र हैं
मुझे अपनी कहानी लिखनी है
इन 'कुछ' और 'थोड़े' जो मेरे पास हैं,
मुझे अपनी ज़िन्दगी जीनी है
ये 'अपने' जो मेरे साथ हैं

- जेन्नी शबनम (फ़रवरी 20, 2009)
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बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

16. सुलगती ज़िन्दगी (क्षणिका)

सुलगती ज़िन्दगी

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मेरी नसों में लहू बनकर इक दर्द पिघलता है
मेरी साँसों में ख़ुमार बनकर इक ज़ख़्म उतरता है
इक ठंडी आग है समाती है सीने में मेरे, धीरे-धीरे
और उसकी लपटें जलाती है ज़िन्दगी मेरी, धीमे-धीमे
न राख है न चिंगारी पर ज़िन्दगी है कि सुलगती ही रहती है

- जेन्नी शबनम (फ़रवरी 17, 2009)
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बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

15. ज़िन्दगी रेत का महल

ज़िन्दगी रेत का महल

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ज़िन्दगी रेत का महल है
हर लहर आकर बिखेर जाती है,
सपनों से रेत का महल हम फ़िर बनाते हैं
जानते हैं बिखर जाना है फ़िर भी 

हमारी मौजूदगी के निशान तो रेत पे न मिलेंगे कभी
किसी के दिल में चुपके से इक हूक-सी उठेगी कभी,
ज़ख्म तो पाया हर पग पर हमने
पर टीस उठेगी ज़रूर सीने में किसी के

रेत के महल-सा स्वप्न हमारा
क्या मुमकिन कि समंदर बख़्श दे कभी?
जीवन हो या रिश्ता, वक़्त की लहरों से बह तो जाना है ही
फिर भी सहेजते हैं रिश्ते, बनाते हैं रेत से महल

- जेन्नी शबनम (19. 9. 2008)
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14. तुमने सब दे दिया (अनुबन्ध/तुकान्त) (पुस्तक- नवधा))

तुमने सब दे दिया

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एक इम्तिहान-सा था, कल जो आकर गुज़र गया
वक़्त भी मुस्कुराया, जब तुमने मुझे जिता दिया 

एक वादा था तुम्हारा, कि सँभालोगे तुम मुझे 
लड़खड़ाए थे क़दम मेरे, तुमने निभा दिया 

रिश्ते ये कह गए, कि हम नहीं इस सदी के
इक ख़्वाब था जो साझा, वो मुझको दे दिया 

एक दिन होगा जब आएगी ज़रूर क़यामत 
उससे पहले तुमने हर क़यामत बरपा दिया। 

दहकता रहा मेरा जिस्म, पर तुम न जल सके
भरोसा तुमने 'शब' का, बस पुख़्ता कर दिया 

-जेन्नी शबनम (9. 2. 2009)
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13. ज़ब्त-ए-ग़म (तुकान्त)

ज़ब्त-ए-ग़म

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सुर्ख़ स्याही से सफ़ेद पन्नों पर
लिखी है किसी के ज़ब्त-ए-ग़म की तहरीर

शब्द के सीने में ज़ब्त है
किसी के जज़्बात की जागीर

दफ़न दर्द को कुरेदकर
गढ़ी गई है किताब रंगीन

बड़े जतन से सँभाल रखी है
किसी के अंतर्मन की तस्वीर

इजाज़त नहीं ज़माने को कि
बाँच सके किसी की तक़दीर

हश्र तो ख़ुदा जाने क्या हो
जब कोई तोड़ने को हो व्याकुल ज़ंजीर

नतीजा तो कुछ भी नहीं बस
संताप को मिल जाएगी इक ज़मीन

दर्द और ज़ख्म से जैसे
रच गई ज़ब्त-ए-ग़म की कहानी हसीन

गर रो सको तो पढ़ो कहानी
टूटी-बिखरी दफ़न है किसी की मुरादें प्राचीन

- जेन्नी शबनम (नवम्बर 9, 2008)
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12. संतान की आहुति

संतान की आहुति

(यह सिर्फ़ कविता नहीं, आप सभी के सोचने के लिए सवाल है। परिवार द्वारा अपनी संतान का क़त्ल कर देना क्योंकि उसने प्रेम करने का गुनाह किया। मनचाही ज़िन्दगी जीने की सज़ा क्या इतनी क्रूरता होती है? प्रेम पाप हो चुका शायद, तो कोई ईश्वर से भी प्रेम न करे!)

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प्रेम के नाम पे आहुति दी जाती 
प्रेम के लिए बलि चढ़ती,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि
वो वही संतान है, जो मुरादों से मिली
एक माँ के ख़ून से पनपी
प्रेम की एक दिव्य निशानी है

एक आँसू न आए हज़ार जतन किए जाते
हर ख़्वाहिश पे दम भर लुटाए जाते
दुनिया की ख़ुशी वारी जाती
एक हँसी पे सब क़ुर्बान होते

गर संतान अपनी मर्ज़ी से जीना चाहे
अपनी सोच से दुनिया देखे
अपनी पहचान की लगन लगे
अपने ख़्वाब पूरा करने को हो प्रतिबद्ध
फिर वही संतान बेमुराद हो जाती
जो दुआ थी कभी अब बददुआ पाती
घर का चिराग कलंक कहलाता
चाहे दुनिया वो रौशन करता

इंतिहा तो तब जब
मनचाहे साथी की ख़्वाहिश
पूरी करती संतान

समान जाति तो फिर भी क़ुबूल
संस्कारों से ढाँप, जगहँसाई से राहत देता परिवार
पर तमाम उम्र जिल्लत और नफ़रत पाती संतान

ग़ैर जाति में मिल जाए जो मन का मीत
घर से तिरस्कृत और बहिष्कृत कर देता परिवार
अपनों के प्यार से आजीवन महरूम हो जाती संतान

धर्म से बाहर जो मिल जाए किसी को अपना प्यार
मानवता की सारी हदों से गुज़र जाता परिवार

कथित आधुनिक परिवार हो अगर
इतना तो संतान पे होता उपकार
रिश्तों से बेदख़ल और जान बख़्श का मिलता वरदान

ख़ानदानी-धार्मिक का अभिमान, करे जो परिवार
इतना बड़ा अनर्थ... कैसे मिटे कलंक...
दे संतान की आहुति, बचा ली अपनी भक्ति

हर ख़ुशी पूरी करते, जीवन की ख़ुशी पे बलि चढ़ाते
इज़्ज़त की गुहार लगाते, संतान के ख़ून से अपनी इज़्ज़त बचाते,
प्रेम से है प्रतिष्ठा जाती, हत्यारा कहलाने से है प्रतिष्ठा बढ़ती
जाने कैसा संस्कारों का है खेल, प्रेम को मिटा गर्वान्वित हैं होते

- जेन्नी शबनम (8. 11. 2008) 
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11. मेरी बिटिया का जन्मदिन

मेरी बिटिया का जन्मदिन

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मेरी बिटिया का जन्मदिन आया, स्वर्णिम सुहाना नया सवेरा लाया
जन्मदिन मनाने सूरज आया, सर्दी और नर्म धूप साथ है लाया
मैंने ख़ूब बड़ा एक केक मँगाया, गुब्बारों से घर है सजाया
सगे-सम्बन्धी सब अपनों ने आशीष दिए, सबने मिलकर जश्न मनाया!

झूमती गाती 'ख़ुशी' मचलती, दोस्तों संग है धूम मचाती
हर दिन खूब है इठलाती सँवरती, 'तितली'-सी है आज उड़ती फिरती
नए कपड़े पहन फूलों-सी खिलती, बड़ी अदा से 'कुकू'-सी चहकती
ख़ूब सजी मासूम-सी इतराती, मेरी बिटिया प्यारी है दिखती!

ख़ुशियों से दामन सदा भरा रहे, युगों तक चमके तेरा नाम
जन्म-जन्मान्तर तक यूँ ही दमके, रौशन रहे सदा तेरा नाम
तू जीए यूँ ही वर्षों हज़ार, सुखों से भरा रहे तेरा भण्डार
तू मुस्कुराए यूँ ही उम्र तमाम, मैं ना रहूँ पर रहेगा सदा मेरा प्यार!

- जेन्नी शबनम (7. 1. 2009)
(मेरी बेटी परान्तिका के जन्मदिन पर)
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गुरुवार, 22 जनवरी 2009

10. यूँ ही चलने दो, यूँ ही जीने दो / Yun Hi Chalne Do, Yu Hin Jine Do

यूँ ही चलने दो, यूँ ही जीने दो

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ये क्या कह रहे हो?
सब जानते तो हो तुम
विध्वंस क्यों लाना चाहते हो?

मृग-मरीचिका-सा न भटको तुम
स्वर्ण-हिरण की चाह में न उलझाओ मुझको
एक ही महाभारत काफ़ी है, दूसरा न रचाओ तु

मेरे होंठों के कम्पन को आवाज़ देना चाहते हो
साँसों की थरथराहट को गति देना चाहते हो
मेरे सोये सपनों को आसमान देना चाहते हो

जानते हो न, मेरे तुम्हारे बीच सदियों का फ़ासला है
मीलों की नहीं जन्मों की खाई है
जन्म और मृत्यु का-सा पड़ाव है

तुम्हारे आवेश से ज़िन्दगी जल जाएगी
या जाने तुम्हारी ज्वाला तूफ़ान लाएगी
नई ज़िन्दगी शायद मिले, पर दुनिया मिट जाएगी

मेरी मूक चाहत को बेआवाज़ ज़ब्त कर लो तुम
मेरा अवलम्ब बन जाओ
मेरी ख़्वाहिशों को जी जाओ तुम

मेरी ज़मीन तुम्हारा आसमान
मेरे सपने तुम्हारी हक़ीकत
यूँ ही चलने दो, यूँ ही जीने दो

- जेन्नी शबनम (21. 1. 2009)
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Yun Hi Chalne Do, Yun Hi Jine Do

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ye kya kah rahe ho?
sab jaante to ho tum
vidhwans kyon laana chaahte ho?

mrig-marichika-sa na bhatko tum
swarn-hiran kee chaah mein na uljhaao mujhko
ek hi mahabhaarat kaafi hai, dusra na rachaao tum.

mere honthon ke kampan ko aawaz dena chaahte ho
saanson kee thartharaahat ko gati dena chahte ho
mere soye sapnon ko aasmaan dena chaahte ho.

jaante ho na, mere tumhaare beech sadiyon ka fasla hai
meelon ki nahin janmon ki khaai hai
janm aur mrityu ka-sa padaav hai.

tumhaare aavesh se zindgi jal jaayegi
ya jaane tumhaari jwaala toofaan laayegi
nayee zindgi shaayad mile, par duniya mit jaayegi.

meri mook chaahat ko beaawaaz zabt kar lo tum
mera awlamb ban jaao
meri khwaahishon ko ji jaao tum.

meri zameen tumhaara aasmaan
mere sapne tumhaaree haqikat
yun hi chalne do, yun hi jine do.

- Jenny Shabnam (21. 1. 2009)
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मंगलवार, 20 जनवरी 2009

9. बस सुनो! मेरी सुनो! सुनते जाओ! / Bus Suno! Meri Suno! Sunte Jaao!

बस सुनो! मेरी सुनो! सुनते जाओ!

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कोई सवाल अब तुम तो न पूछो
मेरा यकीन अब तुम तो न छीनो
सवाल-जवाब और हिसाब-किताब की
यूँ ही इंतिहा है मेरी ज़िन्दगी

सदियों से अब तक का मौन है
ख़्वाहिशों की बड़ी रुस्वाइयाँ हैं
जो हूँ, जैसे हूँ, वैसे ही रहने दो
बर्फ़-सा मुझे पिघल जाने दो

न रोको मुझे, न टोको मुझे
रफ़्ता-रफ़्ता सुनो, बस सुनते जाओ
न हँसो मुझपर, न भरो आह
बस सुनो, मेरी सुनो, सुनते जाओ

नहीं कहे, कभी किसी से अपने जज़्बात
डर है, बेबाक न हो जाए मेरे अल्फ़ाज़
तुमसे कुछ जो नाता है, तक़दीर का
उम्मीद नहीं कोई, बस वास्ता है, एक हमदर्द का

तुमसे जवाब नहीं माँगती, अपने वस्ल का
न हिसाब माँगती, अपने हिज्र का
करुँगी न शिकवा, तुम्हारे वादों का
न गिला, तुम्हारे दावों का

कोई सहूलियत नहीं चाहती, अपनी परवाज़ का
जब तक दम न टूटे मेरा, बस सुनते जाओ
न विचारो न धिक्कारो मुझे
बस सुनो! मेरी सुनो! सुनते जाओ!

- जेन्नी शबनम (12. 1. 2009)
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Bus Suno! Meri Suno! Sunte Jaao!

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Koi sawaal ab tum to na puchho
Mera yakeen ab tum to na chhino
Sawaal-jawaab aur hisaab-kitaab kee
Yun hi intihaa hai meri zindgi.

Sadiyon se abtak ka maun hai
Khwaahishon ki badi ruswaaiyan hain
Jo hoon, jaise hoon, waise hin rahne do
Barf-sa, mujhe pighal jane do.

Na roko mujhe, na toko mujhe
Rafta-rafta suno, bus sunte jaao
Na hanso mujhpar, na bharo aah
Bus suno, meri suno, sunte jaao.

Nahin kahe, kabhi kisi se apne jazbaat
Dar hai, bebaak na ho jaaye mere alfaaz
Tumse kuchh jo naata hai, taqdeer ka
Ummid nahi koi, bus wasta hai, ek humdard ka.

Tumse jawab nahi maangti, apne wasl ka
Na hisaab maangti, apne hizra ka
Karungi na shikwa, tumhaare waadon ka
Na gila, tumhaare daavon ka.

Koi sahuliyat nahin chaahti, apni parwaaz ka
Jab tak dum na toote mera, bus sunte jaao
Na vichaaro na dhikkaro mujhko
Bus suno! meri suno! sunte jaao!

- Jenny Shabnam (12. 1. 2009)
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8. ख़्वाहिश (क्षणिका) / Khwaahish (kshanika)

ख़्वाहिश

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एक कतरा सूरज की किरण, एक चुटकी चाँद की चाँदनी
एक अँजुरी जीने की ख़्वाहिश, एक मुट्ठी अरमानों की ज्वाला
बस इतनी ही चाह थी, जाने कैसी साध थी?
ये जो पाऊँ जन्नत पा लूँ, जाने कैसी उम्मीद थी?
अब जो जन्नत पायी, ख़्वाहिश हुई
ख़ुदा! तुझे पा लूँ!
अब जो ख़ुदा पाया, ख़्वाहिश भी बढ़ी
संग तेरे ख़ुदा, एक जन्म और पा लूँ!

- जेन्नी शबनम (3. 1. 2009)
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Khwaahish

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Ek katra suraj ki kiran, ek chutki chaand ki chaandni
ek anjuri jine ki khwaahish, ek mutthi armaanon ki jwaala
bus itni hi chaah thee, Jaane kaisi saadh thee?
Ye jo paaoon jannat paa loon, Jaane kaisi ummid thee?
Ab jo jannat payee, khwahish hui
Khuda! tujhe paa loon!
Ab jo khuda paya, khwahish bhi badhi
Sang tere Khuda, ek janm aur paa loon!

- Jenny Shabnam (3. 1. 2009)
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7. भीड़ / Bheed

भीड़

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मुझमे इतनी भीड़ इकट्ठी हो गई है  
कहाँ तलाशूँ ख़ुद को, कहाँ छुपाऊँ ख़ुद को?

हर वक़्त गूँजता भीड़ का कोलाहल है
कुछ सुन नहीं पाती, कुछ देख नहीं पाती

भीड़ का हुजूम जैसे बढ़ता जा रहा है
दिल, दिमाग़ और आत्मा जैसे सब फट जाने को है

सोते-जागते, उठते-बैठते हर जगह, हर वक़्त भीड़
क्या करूँ, कैसे रोकूँ?

मुझको मुझसे ही छीन, मुझमें ही क़ैद कर गया
ये अखण्डित भीड़

- जेन्नी शबनम (27.12.2008)
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Bheed

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Mujhme itni bheed ikatthi ho gai hai 
kahaan talaashoon khud ko, kahaan chhupaoon khud ko?

Her waqt goonjta bheed ka kolaahal hai
kuchh sun nahi paati, kuchh dekh nahi paati.

Bheed ka hujum jaise badhta ja raha hai
dil, dimag aur aatma jaise sab phat jane ko hai.

sote-jaagte, uthte-baithte her jagah, her waqt bheed.
Kya karoon, kaise rokoon?

Mujhko mujhse hi chheen, mujhme hi kaid kar gaya
ye akhandit Bheed.

- Jenny Shabnam (27.12.2008)
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