गुरुवार, 15 मार्च 2012

331. चुप सी गुफ़्तगू

चुप सी गुफ़्तगू

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एक चुप-सी दुपहरी में
एक चुप-सी गुफ़्तगू हुई
न तख्तों-ताज 
न मसर्रत
न सुख़नवर की बात हुई
कफ़स में क़ैद संगदिल हमसुखन
और महफ़िल सजाने की बात हुई
बंद दरीचे में
नफ़स-नफ़स मुंतज़िर
और फ़लक पाने की बात हुई
साथ-साथ चलते रहे
क़ुर्बतों के ख़्वाब देखते रहे
मगर फ़ासले बढ़ाने की बात हुई
एक चुप-सी दोपहरी में
एक चुप-सी गुफ़्तगू हुई। 
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मसर्रत - आनंद
नफ़स - साँस
मुंतजिर - प्रतीक्षित
कुर्बतों - नज़दीकी
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- जेन्नी शबनम (14. 3. 2012)
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मंगलवार, 13 मार्च 2012

330. तुम क्या जानो (तुकांत)

तुम क्या जानो

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हिज्र की रातें तुम क्या जानो
वस्ल की बातें तुम क्या जानो।  

थी लिखी कहानी जीत की हमने
क्यों मिल गई मातें तुम क्या जानो। 

था हाथ जो थामा क्या था मन में
जो पाई घातें तुम क्या जानो। 

न कोई रिश्ता यही है रिश्ता
ये रूह के नाते तुम क्या जानो। 

तय किए सब फ़ासले वक़्त के
क्यों हारी हसरतें तुम क्या जानो। 

'शब' की आज़माइश जाने कब तक
उसकी मन्नतें तुम क्या जानो। 

- जेन्नी शबनम (11. 3. 2012)
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गुरुवार, 8 मार्च 2012

329. मैं स्त्री हो गई (पुस्तक - 77)

मैं स्त्री हो गई

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विजातीय से प्रेम किया
अपनी जात से मुझे निष्काषित कर दिया गया,
मैं कुलटा हो गई;
अपने धर्म के बाहर प्रेम किया
अधर्मी घोषित कर मुझे बेदख़ल कर दिया गया,
मैं अपवित्र हो गई;
सजातीय से प्रेम किया
रिश्तों की मुहर लगा मुझे बंदी बना दिया गया,
मैं पापी हो गई;
किसी ने, न कहा, न समझा
मैंने तो एक पुरुष से
बस प्रेम किया
और मैं स्त्री हो गई। 

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2012)
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सोमवार, 5 मार्च 2012

328. होली आई रे (होली पर 10 हाइकु) पुस्तक - 21, 22

होली आई रे
(होली पर 10 हाइकु)

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1. 
रंग-अबीर
मन हुआ अधीर
होली खेलो रे

2. 
फगुआ-पर्व
घर पाहुन आए 
मन चंचल

3. 
भंग-तरंग
इन्द्रधनुषी रंग
सब तरफ़

4. 
फगुआ मन
अंग-अंग में रंग
होली आई रे

5. 
होली त्योहार 
भेद-भाव मिटाए
मन मिलाए

6. 
अंग-अंग में
फगुनाहट छाए 
मनवा नाचे

7. 
घर है सूना
परदेसी सजना
होली रुलाए

8. 
कैसे मनाएँ 
है मन तड़पाए
पी बिन होली

9. 
तुम्हारे बिना
कैसे मनाऊँ होली
न जाओ पिया

10. 
बैरन होली
क्यों पिया बिन आए 
तीर चुभाए

- जेन्नी शबनम (5. 3. 2012)
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शनिवार, 3 मार्च 2012

327. ऐसा वास्ता रखना (तुकांत)

ऐसा वास्ता रखना

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हमारे दरम्यान इतना फ़ासला रखना
बसर हो सकें रिश्ते ऐसा वास्ता रखना।  

लरजते आँसुओं के शबनमी बयाँ
दोस्तों की महफ़िल से बचा रखना।  

काँटों से बचाके दामन हम आएँगे  
वस्ल की शाम अधूरी बहला रखना। 

कारवाँ थम जाए जो तूफ़ान से कहीं
ख़यालों की एक बस्ती सजा रखना। 

बेमुरव्वत दुनिया की फ़िक्र कौन करे
मेरे वास्ते ज़िन्दगी का आसरा रखना। 

सवाल पूछ ग़ैरों के सामने शर्मिंदा न करना
मेरे ज़ीस्त की नादानियों को छिपा रखना।  

'शब' को मिल जाए अँधेरों से निज़ात
दिल में एक चराग तुम जला रखना। 

- जेन्नी शबनम (3.3. 2012)
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बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

326. जा तुझे इश्क़ हो

जा तुझे इश्क़ हो

*** 

तुम्हें आँसू नहीं पसन्द    
चाहे मेरी आँखों के हों   
या किसी और के   
चाहते हो, हँसती ही रहूँ   
भले ही वेदना से मन भरा हो। 
   
जानती हूँ और चाहती भी हूँ   
तुम्हारे सामने तटस्थ रहूँ   
अपनी मनोदशा व्यक्त न करूँ  
लेकिन तुमसे बातें करते-करते   
आँखों में आँसू भर आते हैं   
हर दर्द रिसने लगता है। 
   
मालूम है मुझे   
तुम्हारी सीमाएँ, तुम्हारा स्वभाव   
और तुम्हारी आदतें  
अक्सर सोचती हूँ   
कैसे इतने सहज होते हो   
फ़िक्रमन्द भी हो और   
बिन्दास हँसते भी रहते हो। 
   
कई बार महसूस किया है   
मेरे दर्द से तुम्हें आहत होते हुए   
देखा है तुम्हें, मुझे राहत देने के लिए   
कई उपक्रम करते हुए। 
  
समझाते हो मुझे अक्सर     
इश्क़ से बेहतर है दुनियादारी   
और हर बार मैं इश्क़ के पक्ष में होती हूँ   
और तुम हर बार अपने तर्क पर क़ायम। 
   
ज़िन्दगी को तुम अपनी शर्तों से जीते हो   
इश्क़ से बहुत दूर रहते हो   
या फिर इश्क़ हो न जाए   
शायद इस बात से डरे रहते हो। 
   
मुमकिन है 
तुम्हें इश्क़ वैसे ही नापसन्द हो, जैसे आँसू  
ग़ैरों के दर्द को महसूस करना और बात है   
दर्द को ख़ुद जीना और बात। 
   
एक बार तुम भी जी लो, मेरी ज़िन्दगी   
जी चाहता है 
तुम्हें शाप दे ही दूँ-   
''जा तुझे इश्क़ हो!" 

-जेन्नी शबनम (29.2.2012) 
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बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

325. भूमिका

भूमिका

***


नेपथ्य से आई धीमी पुकार
जाने किसने पुकारा मेरा नाम
मंच पर घिरी हूँ, उन सभी के बीच
जो मुझसे सम्बद्ध हैं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
अपने में तल्लीन, मैं अपनी भूमिका निभा रही हूँ
कण्ठस्थ संवाद दुहरा रही हूँ। 

फिर ये कैसा व्यवधान?
किसकी है ये पुकार?
कोई नहीं दिखता 
नेपथ्य में अँधियारा, थोड़ी दूरी पर थोड़ा उजाला
घुटनों में मुँह छुपाए कोई छाया
स्वयं को बिसराकर, अज्ञात पथ पर चलकर
मंच तक पहुँची थी मैं 
उसे छोड़ आई थी, कब का भूल आई थी। 

कितनी पीड़ा थी
अपने अस्तित्व को खोने की व्यथा थी
बार-बार मुझे पुकारती थी
दर्शकों के शोर में उसकी पुकार दब जाती थी। 

मंच की जगमगाहट में उसका अन्धेरा और गहराता था
पर वह हारी नहीं
सालों-साल अनवरत पुकारती रही
कभी तो मैं सुन लूँगी, वापास आ जाऊँगी। 

कुछ भी विस्मृत नहीं, हर क्षण स्मरण था मुझे
उसके लिए कोई मंच नहीं
न उसके लिए कोई संवाद
न दर्शक बन जाने की पात्रता
ठहर जाना ही एकमात्र आदेश। 

उसकी विवशता थी और जाना पड़ा था दूर
अपने लिए पथ ढूँढना पड़ा था मुझे
मेरे लिए भी अकथ्य आदेश
मंच पर ही जीवन शेष
मेरे बिना अपूर्ण मंच, ले आई उसे भी संग। 

अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता, एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए। 

- जेन्नी शबनम (21.2.2012)
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गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

324. अकेले से लगे तुम

अकेले से लगे तुम

***

आज जाते हुए
बहुत असहाय से दिखे तुम
कन्धों पर भारी बोझ
कुछ अपना, कुछ परायों का। 

इस जद्दोजहद में अपना औचित्य बनाए रखने का
तुम्हारा अथक प्रयास
हर विफलता के बाद भी
स्वयं को साबित करने की तुम्हारी दृढ आकांक्षा
साज़िशों को विफल करने के प्रयास में
साज़िश में उलझते
आज बहुत अकेले से लगे तुम। 

तुमको कटघरे में देखना दुर्भाग्यपूर्ण है
पर सदैव तुम कटघरे में खड़े कर दिए जाते हो
उन सब के लिए
जो तुम्हारे हिसाब से जायज़ था
जिन्हें तुम अपने पक्ष में मानते हो
वे ही तुम्हारे ख़िलाफ़ गवाही देते हैं
और सबूत भी रचते हैं। 

सही-ग़लत का निर्धारण कौन करे
परमात्मा आज कल सबके साथ नहीं
कम-से-कम उनके तो बिल्कुल नहीं
जो तुम्हारी तरह आम हैं।  

- जेन्नी शबनम (16.2.2012)
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323. सपनों को हारने लगी हूँ

सपनों को हारने लगी हूँ

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तुम्हारे लिए मुश्किलें बढ़ाती-बढ़ाती
ख़ुद के लिए मुश्किलें पैदा कर ली हूँ
पल-पल क़रीब आते-आते
ज़िन्दगी से ही क़रीबी ख़त्म कर ली हूँ,
मैं विकल्पहीन हूँ
अपनी मर्ज़ी से उस राह पर बढ़ी हूँ
जहाँ से सारे रास्ते बंद हो जाते हैं,
तुम्हारे पास तो तमाम विकल्प हैं
फिर भी जिस तरह 
तुम ख़ामोशी से स्वीकृति देते हो
बहुत पीड़ा होती है
अवांछित होने का एहसास दर्द देता है,
शायद मुझसे पार जाना कठिन लगा होगा तुम्हें
इंसानियत के नाते
दुःख नहीं पहुँचाना चाहा होगा तुमने
क्योंकि कभी तुमसे तुम्हारी मर्ज़ी पूछी नहीं
जबकि भ्रम में जीना मैंने भी नहीं चाहा था,
जानते हुए कि
सामान्य औरत की तरह मैं भी हूँ
जिसको उसके मांस के
कच्चे और पक्केपन से आँका जाता है
जिसे अपने सपनों को
एक-एक कर ख़ुद तोड़ना होता है
जिसे जो भी मिलना है
दान मिलना है
सहानुभूति मिलनी है प्रेम नहीं
फिर भी मैंने सपनों की लम्बी फ़ेहरिस्त बना ली,
एक औरत से अलग भी मैं हूँ
यह सोचने का समय तुम्हारे पास नहीं
सच है मैंने अपना सब कुछ
थोप दिया था तुम पर
ख़ुद से हारते-हारते
अब सपनों को हारने लगी हूँ,
जैसे कि जंग छिड़ गया हो मुझमें
मैं जीत नहीं सकती तो
मेरे सपनों को भी मरना होगा। 

- जेन्नी शबनम (15.2. 2012)
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मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

322. प्रेम (पुस्तक - 108)

प्रेम

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उचित-अनुचित और पाप-पुण्य की कसौटी पर 
तौली जाती है, प्रेम की परिभाषा,
पर प्रेम तो हर परिभाषा से परे है 
जिसका न रूप, न आकार 
बस महसूस करना ही एक मात्र 
प्रेम में होने की संतुष्ट व्याख्या है, 
प्रेम आदत नहीं 
जिससे अन्य आदतों की तरह 
छुटकारा पाया जाए 
ताकि जीवन जीने में सुविधा हो, 
प्रेम सोमरस भी नहीं 
जिसे सिर्फ़ देवता ही ग्रहण करें 
क्योंकि वो सर्वोच्च हैं 
और इसे पाने के अधिकारी भी मात्र वही हैं, 
प्रेम की परिधि में 
जीवन की स्वतंत्रता है 
जीने की और स्वयं के अनुभूति की, 
प्रेम स्वाभाविक है, प्रेम प्राकृत है 
आत्मा परमात्मा-सा कुछ 
जो जीवन के लिए उतना ही आवश्यक है 
जितना जीवित रहने के लिए प्राण-वायु, 
आकाश-सा विस्तार 
धरती-सी स्थिरता 
फूलों-सी कोमलता 
प्रेम का प्राथमिक परिचय है।   

- जेन्नी शबनम (14. 2. 2012)
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शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

321. नन्हे हाथों में

नन्हे हाथों में

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नामुमकिन हो गया
उस सफ़र पर जाना
जहाँ जाने के लिए
बारहा कोशिश करती रही,
मर्ज़ी नहीं थी
न चाह
पर यहाँ रुकना भी बेमानी लगता रहा,
ठीक उसी वक़्त
जब काफ़िला गुज़रा
और मैंने कदम बढ़ा दिए
किसी ने मुझे रोक लिया,
पलटकर देखा
दो नन्हे हाथ
आँचल थामे हुए थे,
रिश्तों की दुहाई
जीवन पलट गया
मेरे साथ उजाले की किरण न थी
पर उम्मीद की किरण तो थी
उन नन्हे हाथों में
। 

- जेन्नी शबनम (नवम्बर 1995)
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बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

320. अब और कितना (क्षणिका)

अब और कितना

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कैलेंडर में हर गुज़रे दिन को
लाल स्याही से काटकर बीतने का निशान लगाती हूँ
साल-दर-साल अनवरत
कोई अंतिम दिन नहीं आता जो ठहरता हो
न कोई ऐसी तारीख़ आती है 
जिसके गुज़रने का अफ़सोस न हो
प्रतीक्षा की मियाद मानो निर्धारित हो
आह! अब और कितना?
किसी तरह हो, बस अंत हो। 

- जेन्नी शबनम (8. 2. 2012)
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शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

319. क्या बन सकोगे एक इमरोज़ (पुस्तक - 24)

क्या बन सकोगे एक इमरोज़

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तुमने सिर्फ़ किताबें पढ़ी हैं
या फिर अमृता-सा जिया है,
क्या समझते हो
इमरोज़ बनना इतना आसान है?
हाँ-हाँ, मालूम है
नहीं बनना इमरोज़
ये उनका फ़लसफ़ा था,
एक समर्पित पुरुष
जिसे स्त्री का प्रेमी भी पसंद है
इसलिए कि वो प्रेम में है। 

ये संभव नहीं
उम्र की बात नहीं,
इमा-इमा पुकारती अमृता
माझा-माझा कह दौड़ पड़ता इमरोज़
अशक्त काया की शक्ति बनकर,
गुज़री अमृता के लिए चाय बनाता इमरोज़
वो पुरुष जिसे न मान न अभिमान
क्या बन सकोगे एक इमरोज़?

ओह हो...!
अमृता इमरोज़ ही क्यों?
कहते हैं
जो नहीं मिलते उनका प्यार अमर होता है
फिर इनका क्यों?
न जाने कितने अमृता-इमरोज़ हुए
वक़्त कि पेशानी पे बल पड़े
शायद वक़्त से सहन न हुआ होगा
हर ऐसे इमरोज़ को पुरुष बना दिया होगा,
हर अमृता तो सदा एक-सी ही रही होगी
अपनी उदासियों में किसी को आत्मा में बसाए
किसी के लिए कविता बुन रही होगी
या फिर किसी के लिए जी रही होगी,
पर हर इमरोज़ पुरुष क्यों बन जाता है?
हर इमरोज़ इमरोज़-सा क्यों नहीं बन पाता है?

क्या बोलते हो ?
पुरुष और नारी का फ़र्क़ नहीं जानते
बिछोह की अमर कथाओं में
एक कथा मिलन की,
क्या सोचते हो
कथा जीवन है?
ये उनका जीवन
ये हमारा जीवन
जहाँ मन भटकता है
किसी नए को तलाशता है,
न हमें बनना अमृता-इमरोज़
न तुम बनो अमृता-इमरोज़। 

- जेन्नी शबनम (26. 1. 2012)
(इमरोज़ जी के जन्मदिन पर)
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बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

318. मछली या समंदर

मछली या समंदर

***

बिना अपनी सहमति
अभिशप्त गलियों से महज़ गुज़रना
बदनामी का सबब बन जाता है
वैसे ही जैसे किसी संक्रमित गली की बहती हुई हवा
कोढ़ की तरह मन में घाव बना देती है। 

विवशता की कहानी
जाने कैसे समंदर में विलीन हो जाती है
जब मछली जाल में पकड़कर आती है
तो समंदर निष्कलंक रह जाता है
सिर्फ़ मछली क्रूरता का दंश झेलती है। 

एक सवाल दुनिया से 
घात किसने लगाया
मछली या समंदर ने?

- जेन्नी शबनम (1.2.2012)
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बुधवार, 25 जनवरी 2012

317. स्वतः नहीं जन्मी

स्वतः नहीं जन्मी

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नहीं मालूम, मैं हैरान हूँ या परेशान
पर यथास्थिति को समझने में, नाकाम हूँ,
समझ नहीं आता
ज़िन्दगी की करवटों को
किस रूप में लूँ
जिस चुप्पी को मैंने ओढ़ लिया
या उसे जिसे मानने के लिए दिल सहमत नहीं,
मेरे दोस्त!
मौनता मुझमें स्वतः नहीं जन्मी
न उपजी है मुझमें
मैंने ख़ामोशी को जन्म दिया है
वक़्त से निभाकर,
अब दरकिनार हो गई ज़िन्दगी 
उन सबसे
जिसमें तूफ़ान भी था
नदी भी और बरसते हुए बादल भी
तसल्ली से देखो
सब अपनी-अपनी जगह आज भी यथावत हैं,
मैं ही नामुराद
न बह सकी, न चल सकी, न रुक सकी। 

- जेन्नी शबनम (17. 1. 2012)
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शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

316. मदिरा का नशा

मदिरा का नशा

*******

तुमने तो जाना है
मदिरा नशा है
नशा जो जीवन छीन लेता है
मदिरा जो मतवाला बना देती है,
मदिरा का नशा
तुम क्या जानो दोस्त
घूँट-घूँट पीकर
जब मचलती है ज़िन्दगी
यूँ मानो हमने जीवन को पिया है
पल-पल को जिया है,
सिगरेट के छल्लो में
जब उड़ती है ज़िन्दगी
मेरे दोस्त! क्या तुमने देखी है उसमें
ज़िन्दगी की तस्वीर,
कश-कश पीकर
जब चहकती है ज़िन्दगी
यूँ मानो हमने जीत ली तक़दीर
बदल डाली हाथों की लकीर,
पर मदिरा का नशा जब उतरता है
धुआँ-धुआँ साँसें
उखड़ी-उखड़ी चाल
कमबख़्त बस बदन टूटता है
मगज़ कब कहाँ कुछ भूलता है,
मदिरा के नशे ने
पल-पल होश दिलाया है
जालिम ज़िन्दगी ने जब-जब तड़पाया है,
कौन जाने वक़्त का मिजाज़
कौन करे किससे सवाल
कुछ पल की सारी कहानी है
फिर वही दुनियादारी है।  

- जेन्नी शबनम (15. 1. 2012)
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बुधवार, 18 जनवरी 2012

315. नूतन वर्ष (नव वर्ष पर 5 हाइकु) पुस्तक - 21

नूतन वर्ष
(नव वर्ष पर 5 हाइकु)

*******

1.
नूतन वर्ष
चहुँ ओर पसरा
अपार हर्ष।

2.
फिर से आया
नया साल सुहाना
जश्न मनाओ।

3.
धूम धड़ाका
आया है नया साल
मन चहका।

4.
बीता है वर्ष
जीवन सुखकर
यादें देकर।

5.
नए साल का
करो मिलके सब
शुभ स्वागत।

- जेन्नी शबनम (28. 12. 2011)
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गुरुवार, 12 जनवरी 2012

314. मौसम बदलेगा (क्षणिका)

मौसम बदलेगा

*******

देह की बात मन की आँच कोई न समझा 
रुदन-क्रंदन कोई न सुना 
युग बीता, सब टूटा सब पथराया 
धूमिल आस, संबल नहीं पर विश्वास 
देर सही, मौसम बदलेगा। 

- जेन्नी शबनम (12. 1. 2012)
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सोमवार, 9 जनवरी 2012

313. जाने कैसे

जाने कैसे

***

किसी अस्पृश्य के साथ खाए एक निवाले से
कई जन्मों के लिए
कोई कैसे पाप का भागीदार बन जाता है
जो गंगा में एक डुबकी से धुल जाता है
या फिर गंगा के बालू से मुख-शुद्धि कर
हर जन्म को पवित्र कर लेता है। 
अतार्किक!
परन्तु सच का सामना कैसे करें?
हमारा सच, हमारी कुण्ठा
हमारी हारी हुई चेतना
एक लकीर खींच लेती है
फिर हमारे डगमगाते क़दम
इन राहों में उलझ जाते हैं और
मन में बसा हुआ दरिया
आसमान का बादल बन जाता है।  

- जेन्नी शबनम (9.1.2012)
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शनिवार, 7 जनवरी 2012

312. चलो सत्य की राह

चलो सत्य की राह

*******

बन सबल 
शक्तिमान तुम
करो आलिंगन 
संसार तुम
न हो धूमिल 
प्रकाश तुम्हारा
न उलझे कभी 
जीवन तुम्हारा 
बाधा हो पर 
न हारे विश्वास
रहे अडिग 
स्वयं पर विश्वास
चूमो धरती 
औ छुओ आकाश
मुट्ठी में तुम 
भर लो आकाश 
कठिन सही 
पर न भूलो राह
चलो सदा 
तुम सत्य की राह।  

- जेन्नी शबनम (जनवरी 7, 2012)
(बेटी परान्तिका के जन्मदिन पर)
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गुरुवार, 5 जनवरी 2012

311. क़र्ज़ जो मुझे चुकाना नहीं (क्षणिका)

क़र्ज़ जो मुझे चुकाना नहीं

*******

जो वक़्त मुझे देते हो, माना ये है काफ़ी
पर मेरे लिए वो क़र्ज़ है
ऐसा क़र्ज़ जो मुझे चुकाना नहीं
क़र्ज़ चुकता किया, तो तुम छूट जाओगे
क़र्ज़ चुकाने दूसरे जन्म में कहाँ मिल पाओगे
इस जन्म में तुम्हारी कर्ज़दार रहना है
अगले जन्म में सिर्फ़ अपने लिए जीना है। 

- जेन्नी शबनम (2. 1. 2012)
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सोमवार, 2 जनवरी 2012

310. एक नई शुरुआत

एक नई शुरुआत

***

माना कि बहुत कुछ छूट गया
एक और सपना टूट गया
पार कर लिया, तो कर लिया
उस रास्ते पर दोबारा क्यों जाना
जहाँ पाँव में छाले पड़ें, सीने में शूल चुभे
बोझिल साँसे जाने कब रुकें।  

सपने जीवन का अन्त नहीं, एक नई शुरुआत भी है
कुछ ऐसे सपने सजाओ कि ज़िन्दगी जीने को मचल उठे
बार-बार नहीं देखो वैसे सपने
जिनके टूटने पर ज़िन्दगी अपनी अहमियत खो दे। 

नई राह में सम्भावनाएँ हैं 
शायद एक नई दिशा मिले, जो जीवन के लिए लाज़िमी हो
जहाँ सुकून के कुछ पल हों और सपनों को मंज़िल मिले।  

- जेन्नी शबनम (1.1.2012)
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शनिवार, 31 दिसंबर 2011

309. बीत गया

बीत गया

*******

तय मौसम का एक मौसम
अच्छा हुआ बीत गया
हार का एक मनका
अच्छा हुआ टूट गया।  
समय का मौसम
मन का मनका
साथ-साथ बिलख पड़े
आस का पंछी रूठ गया। 
दोपहरी जलाती रही
साँझ कभी आती नहीं
ये भी किस्सा ख़ूब रहा
तमाशबीन मेरा मन रहा। 
हर कथा का सार वही
जीवन का आधार वही
वक़्त से रंज क्यों
फ़लसफ़ा मेरा कह रहा। 

- जेन्नी शबनम (31. 12. 2011)
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गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

308. एक अदद रोटी

एक अदद रोटी

***

सुबह से रात, रोज़ सबको परोसता
गोल-गोल, प्यारी-प्यारी, नरम-मुलायम रोटी
मिल जाती, काश! 
उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। 

ठिठुरती ठण्ड की मार और उस पर गर्म रोटी की चाह
चार टुकड़ों में बँट सके
ले आया चोरी से एक रोटी
ठण्डी रोटी गर्म होने लगी
लड़ पड़े सब, जो झपट ले होगी उसकी
सभी को चाहिए पूरी-की-पूरी रोटी। 

छीना-झपटी, हाथापाई
धू-धू कर जल गई
हाय री क़िस्मत
लगी न किसी के हाथ रोटी
छाती पीटो कि बदन तोड़ो
अब कल ही मिलेगी बची-खुची बासी रोटी। 

न इसके हिस्से, न उसके हिस्से
कुछ नहीं किसी के हिस्से
अरसे बाद चूल्हे ने खाई
एक अदद रोटी। 

- जेन्नी शबनम (21.12.2011)
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मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

307. बेलौस नशा माँगती हूँ

बेलौस नशा माँगती हूँ

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सारे नशे की चीज़ मुझसे ही क्यों माँगती हो
कहकर हँस पड़े तुम
मैं भी हँस पड़ी
तुमसे न माँगू तो किससे भला
तुम ही हो नशा
तुम से ही ज़िन्दगी।  

तुम्हारी हँसी बड़ी प्यारी लगती है
कहकर हँस पड़ती हूँ
मेरी शरारत से वाक़िफ़ तुम
सतर्क हो जाते हो
एक संजीवनी लब पे
मौसम में पसरती है खुमारी। 

जाने किस नशे में तुमने कहा
मेरा हाथ छोड़ रही हो
और झट से तुम्हारा हाथ थाम लिया
धत्त! ऐसे क्यों कहते हो
तुम ही तो नशा हो
तुमसे अलग कहाँ रह पाऊँगी। 

तुम कहते कि शर्मीले हो
मैं ठठाकर हँस पड़ती हूँ
हे भगवान्! तुम शर्मीले!
तुम्हारी सभी शरारतें मालूम है मुझे
याद है, वो जागते सपनों-सी रात
जब होश आया और पल भर में सुबह हो गई। 

ज़िन्दगी उस दिन फिर से खिल गई
जब तुमने कहा चुप-चुप क्यों रहती हो
सुलगते अलाव की एक चिंगारी मुझपर गिरी
और मेरे ज़ेहन में तुम जल उठे
तुम्हारा नशा पसरा मुझपर
ज़िन्दगी ने शायद पहली उड़ान भरी। 

तुम्हारी दी हुई हर चीज़ पसंद है
हर एहसास बस तुमसे ही
एक ही जीवन
पल में समेट लेना चाहती हूँ
सिर्फ़ तुम ही तो हो
जिससे अपने लिए बेलौस नशा माँगती हूँ। 

- जेन्नी शबनम (दिसम्बर 20, 2011)
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शनिवार, 17 दिसंबर 2011

306. अब डूबने को है

अब डूबने को है

***

बहाने नहीं हैं पलायन के
न कोई अफ़साने हैं मेरे
न कोई ऐसा सच, जिससे तुम भागते हो
और सोचते हो कि मुझे तोड़ देगा। 

सारे सच 
जो अग्नि से प्रज्वलित होकर निखरे हैं
तुम जानते हो दोस्त! वह मैंने ही जलाए थे
पल-पल की बातें जब भारी पड़ गईं 
एक दोने में लपेटकर नदी में बहा दिया 
फिर वह दोना एक मछुआरे ने मुझ तक पहुँचा दिया
क्योंकि उस पर मैंने अपने नाम लिख दिए थे
ताकि जब जल में समाए 
अपने साथ मुझे भी समाहित कर ले। 

अब उस दोने को जला रही हूँ
सारे सच पक-पककर गाढे रंग के हो गए हैं
वह देखो मेरे दोस्त! सूरज-सा तपता मेरा सच
अब डूबने को है। 

- जेन्नी शबनम (17.11.2011)
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गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

305. जाने कहाँ गई वो लड़की (पुस्तक - 31)

जाने कहाँ गई वो लड़की

*******

सफ़ेद झालर वाली फ्रॉक पहने
जिसपे लाल-लाल फूल सजे
उछलती-कूदती, जाने कहाँ गई वो लड़की। 
बकरी का पगहा थामे, खेतों के डरेर पर भागती
जाने क्या-क्या सपने बुनती, एक अलग दुनिया उसकी।  
भक्तराज को भकराज कहती
क्योंकि क-त संयुक्त में उसे 'क' दिखता है
उसके अपने तर्क, अजब जिद्दी लड़की। 
बात बनाती ख़ूब, पालथी लगाकर बैठती
क़लम दवात से लिखती रहती, निराली दुनिया उसकी। 
एक रोज़ सुना शहर चली गई, गाँव की ख़ुशबू साथ ले गई
उसके सपने उसकी दुनिया, कहीं खो गई लड़की। 
साँकल की आवाज़, किवाड़ी की चरचराहट
जानती हूँ वो नहीं, पर इंतज़ार रहता अब भी। 
शायद किसी रोज़ धमक पड़े, रस्सी कूदती-कूदती
दही-भात खाने को मचल पड़े, वो चुलबुली लड़की। 
जाने कहाँ गई, वो मानिनी मतवाली
शायद शहर के पत्थरों में चुन दी गई
उछलती-कूदती वो लड़की। 

- जेन्नी शबनम (14. 11. 2011)
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शनिवार, 10 दिसंबर 2011

304. आदमज़ाद की बात नहीं

आदमज़ाद की बात नहीं 

*** 

प्यार की उम्र क्या होती है?   
साथ जीने की शर्त क्या होती है?   
अजब सवाल पूछते हो   
प्यार की उम्र कभी ख़त्म नहीं होती   
प्यार में कोई शर्त नहीं होती। 
   
फिर यह कैसा प्यार   
हर बार एक नई, अनकही शर्त   
जिसे मान लेना होता है। 
   
उम्र के ढलान पर   
तुम्हारी निगाहें किसे ढूँढती हैं?   
साथ तो होते हैं 
लेकिन उबलती शिराएँ   
समझते हो न, सहन नहीं होती। 
  
सारी शर्तों को मानते हुए   
हर अनकहा समझते हुए   
फिर ऐसा क्यों?
   
हाँ! सच है   
रूह से रूह की बात   
परी कथाओं की बात है   
आदमज़ाद की बात नहीं।    

- जेन्नी शबनम (10.12.2011) 
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सोमवार, 5 दिसंबर 2011

303. अपनी-अपनी धुरी (पुस्तक - 106)

अपनी-अपनी धुरी

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अपनी-अपनी धुरी पर चलते, पृथ्वी और ग्रह-नक्षत्र
जीवन-मरण हो या समय का रथ
नियत है सभी की गति, धुरी और चक्र। 
बस एक मैं, अपनी धुरी पर नहीं चलती
कभी लगाती अज्ञात के चक्कर
कभी वर्जित क्षेत्रों में घुस
मंथर तो कभी विद्युत से भी तेज
अपनी ही गति से चलती। 
न जाने क्यों इतनी वर्जनाएँ हैं
जिन्हें तोड़ना सदैव कष्टप्रद है
फिर भी उसे तोड़ना पड़ता है
अपने जीने के लिए, धुरी से हटकर चलना पड़ता है। 
बिना किसी धुरी पर चलना
सदैव भय पैदा करता है
चोट खाने की प्रबल संभावना होती है
कई बार सिर्फ़ पीड़ा नहीं मिलती, आनन्द भी मिलता है
पर कहना कठिन है
आने वाला पल किस दशा में ले जाएगा
जीवन को कौन-सी दिशा देगा
जीवन सँवरेगा, या फिर सदा के लिए बिखर जाएगा। 
कैसे समझूँ, बिना धुरी के लक्ष्यहीन पथ
नियति है या मेरी वांछित जीवन दिशा
जिस पर चलकर, पहुँच जाऊँगी, किसी धुरी पर
और चल पडूँगी, नियत गति से
बिना डगमगाए, अपनी राह
जो मेरे लिए पहले से निर्धारित है। 

- जेन्नी शबनम (4. 12. 2011)
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मंगलवार, 22 नवंबर 2011

302. चुपचाप सो जाऊँगी

चुपचाप सो जाऊँगी 

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इक रोज़ तेरे काँधे पे
यूँ चुपचाप सो जाऊँगी
ज्यूँ मेरा हो वस्ल आख़िरी
और जहाँ से हो रुख़सती। 

जो कह न पाए तुम कभी
चुपके से दो बोल कह देना
तरसती हुई मेरी आँखें में
शबनम से मोती भर देना। 

ख़फा नहीं तक़दीर से अब
आख़िरी दम तुझे देख लिया
तुम मेरे नहीं मैं तेरी रही
ज़िन्दगी ने दिया, बहुत दिया। 

न कहना है कि भूल जाओ
न कहूँगी कि याद रखना
तेरी मर्ज़ी से थी चलती रही
जो तेरा फ़ैसला वो मेरा फ़ैसला। 

- जेन्नी शबनम (22. 11. 2011)
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बुधवार, 16 नवंबर 2011

301. उम्र कटी अब बीता सफ़र (पुस्तक - 47)

उम्र कटी अब बीता सफ़र

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बचपन कब बीता बोलो
हँस पड़ा आईना ये कहकर
काले गेसुओं ने निहारा ख़ुद को
चाँदी के तारों से लिपटाया ख़ुद को। 

चाँदी के तारों ने पूछा
माथे की शिकन से हँसकर
किसका रस्ता अगोरा तुमने?
क्या ज़िन्दगी को हँसकर जीया तुमने?

ज़िन्दगी ने कहा सुनो जी
हँसने की बारी आई थी पलभर
फिर दिन महीना और बीते साल
समय भागता रहा यूँ ही बेलगाम। 

समय ने कहा फिर
ज़रा हौले ज़रा तमककर
नहीं हौसला तो फिर छोड़ो जीना
'शब' का नहीं कोई साथी रहेगी तन्हा। 

'शब' ने समझाया ख़ुद को
अपने आँसू ख़ुद पोछ फिर हँसकर,
बेरहम तक़दीर ने भटकाया दर-ब-दर
अच्छा है, लम्बी उम्र कटी, अब बीता सफ़र!

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2011)
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शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

300. अल्फ़ाज़ उगा दूँ (क्षणिका)

अल्फ़ाज़ उगा दूँ

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सोचती हूँ कुछ अल्फ़ाज़ उगा दूँ
तितर-बितरकर हर तरफ़ पसार दूँ
चुक गए हैं मेरे अंतस् से सभी
शायद किसी निर्मोही पल में
उनकी ज़रुरत पड़ जाए। 

- जेन्नी शबनम (11. 11. 2011)
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मंगलवार, 8 नवंबर 2011

299. भय

भय

***

भय!
किससे भय? ख़ुद से?
ख़ुद से कैसा भय?
असम्भव!

पर ये सच है
अपने आप से भय
ख़ुद के होने से भय
ख़ुद के खोने का भय
अपने शब्दों से भय
अपने प्रेम से भय
अपने क्रोध से भय
अपने प्रतिकार से भय
अपनी चाहत का भय
अपनी कामना का भय
कुछ टूट जाने का भय
सब छूट जाने का भय  
कुछ अनजाना-अनचीन्हा भय
ज़िन्दगी के साथ चलता है
ख़ुद से ख़ुद को डराता है
 
कोई निदान?
असम्भव!
जीवन से मृत्युपर्यंत
भय! भय! भय!
न निदान, न नज़ात!

- जेन्नी शबनम (7.11.2011)
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रविवार, 6 नवंबर 2011

298. ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है

ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है

*******

तुम्हारी निशानदेही पर
साबित हुआ कि ज़िन्दगी कहाँ-कहाँ है
और कहाँ-कहाँ से उजड़ गई है
। 
एक लोकोक्ति की तरह
तुम बसे हो मुझमें
जिसे पहर-पहर दोहराती हूँ
या फिर देहात की औरतें
जैसे भोर में गीत गुनगुनाते हुए
रोपनी करती हैं या फिर
धान कूटते हुए लोकगीत गाती हैं
मुझमें वैसे ही उतर गए तुम
हर दिवस के अनुरूप
। 
जब मैं रात्रि में अपने केंचुल में समाती हूँ
जैसे तुम्हारे आवरण को ओढ़ लिया हो
और महफूज़ हूँ
फिर ख़ुद में ख़ुद को तलाशती हूँ
तुम झटके से आ जाते हो
जैसे रात के सन्नाटे में
पहरु के बोल और झींगुर के शोर
। 
मेरे केंचुल को किसी ने जला दिया
मैं इच्छाधारी
जब तुम्हारे संग अपने सच्चे वाले रंग में थी
मैं महरूम कर दी गई
अपनी जात से और औक़ात से
। 
अब तुम्हारी शिनाख्त की ज़रुरत है
ताकि वापस ज़िन्दगी मिले
और तुम्हारी निशानदेही पर
अपना नया केंचुल उगा लूँ
जिससे मेरी पहचान हो
और मुझमें वो रंग वापस उतर जाए
जिसे मैं दुनिया से ओझल हो
जीती हूँ
। 

- जेन्नी शबनम (6. 11. 2011)
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शनिवार, 5 नवंबर 2011

297. चक्रव्यूह (पुस्तक - 74)

चक्रव्यूह

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कैसे-कैसे इस्तेमाल की जाती हूँ
अनजाने ही, चक्रव्यूह में घुस जाती हूँ
जानती हूँ, मैं अभिमन्यु नहीं
जिसने चक्रव्यूह भेदना गर्भ में सीखा
मैं स्त्री हूँ, जो छली जाती है
कभी भावना से
कभी संबंधों के हथियार से
कभी सुख के प्रलोभन से
कभी ख़ुद के बंधन से
हर बार चक्रव्यूह में समाकर
एक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा!

- जेन्नी शबनम (1. 11. 2011)
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बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

296. दीपावली (दीपावली पर 11 हाइकु) पुस्तक - 20

दीपावली
(दीपावली पर 11 हाइकु)

*******

1.
दीपों की लड़ी
लक्ष्मी की आराधना
दीवाली आई।

2.
लक्ष्मी की पूजा
पटाखों का है शोर
दीवाली पर्व।

3.
दीपक जले
घर अँगना सजे
आई दीवाली।

4.
है दीपावली
रोशनी का त्योहार
दीप-बहार।

5.
श्री राम लौटे
अमावस्या की रात
दीवाली मने।

6.
अयोध्या वासी
मनाए दीपावली
राम जो लौटे।

7.
दीया जो जले
जगमग चमके
दीवाली सजे।

8.
दीया के संग
घर-अँगना जागे
दीवाली रात।

9.
प्रकाश-पर्व
जगमग दीवाली
खिलता मन।

10.
रोशनी फैली
घर बाहर धूम
आयी दीवाली।

11.
चमके-गूँजे
दीप और पटाखे
दीपावली है।

- जेन्नी शबनम (21. 10. 2011)
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रविवार, 23 अक्टूबर 2011

295. मेरे शब्द (पुस्तक - 41)

मेरे शब्द

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बहुत कठिन है, पार जाना
ख़ुद से, और उन तथाकथित अपनों से
जिनके शब्द मेरे प्रति
सिर्फ़ इसलिए निकलते हैं कि
मैं आहत हो सकूँ,
खीझकर मैं भी शब्द उछालूँ
ताकि मेरे ख़िलाफ़
एक और मामला
जो अदालत में नहीं
रिश्तों के हिस्से में पहुँचे
और फिर शब्दों द्वारा
मेरे लिए, एक और मानसिक यंत्रणा। 
नहीं चाहती हूँ
कि ऐसी कोई घड़ी आए 
जब मैं भी बेअख़्तियार हो जाऊँ
और मेरे शब्द भी। 
मेरी चुप्पी अब सीमा तोड़ रही है
जानती हूँ, अब शब्दों को रोक न सकूँगी
ज़ेहन से बाहर आने पर
मुमकिन है ये तरल होकर
आँखों से बहे या 
फिर शीशा बनकर
उन अपनों के बदन में घुस जाए
जो मेरी आत्मा को मारते रहते हैं। 
मेरे शब्द
अब संवेदनाओं की भाषा 
और दुनियादारी समझ चुके हैं। 

- जेन्नी शबनम (22. 10. 2011)
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शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

294. बाध्यता नहीं (क्षणिका)

बाध्यता नहीं

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ये मेरी चाह थी कि तुम्हें चाहूँ और तुम मुझे
पर ये सिर्फ़ मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं। 

- जेन्नी शबनम (9. 10. 2011)
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बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

293. ज़िन्दगी (तुकांत)

ज़िन्दगी

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ज़िन्दगी तेरी सोहबत में, जीने को मन करता है 
चलते हैं कहीं दूर कि, दुनिया से डर लगता है। 

हर शाम जब अँधेरे, छीनते हैं मेरा सुकून
तेरे साथ ऐ ज़िन्दगी, मर जाने को जी करता है। 

अब के जो मिलना, संग कुछ दूर चलना
ढलती उमर में, तन्हाई से डर लगता है। 

आस टूटी नहीं, तुझसे शिकवा भी है
ग़र तू साथ नहीं, फिर भ्रम क्यों देता है। 

'शब' कहती थी कल, ऐ ज़िन्दगी तुझसे
छोड़ते नहीं हाथ, जब कोई पकड़ता है। 

ऐ ज़िन्दगी, अब यहीं ठहर जा
तुझ संग जीने को, मन करता है। 

- जेन्नी शबनम (16. 10. 2011)
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गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

292. क़र्ज़ अदायगी

क़र्ज़ अदायगी

*******

तुमने कभी स्पष्ट कहा नहीं
शायद संकोच हो
या फिर सवालों से घिर जाने का भय
जो मेरी बेदख़ली पर तुमसे किए जाएँगे
जो इतनी नज़दीक वो ग़ैर कैसे?
पर हर बार तुम्हारी बेरुखी
इशारा करती है कि
ख़ुद अपनी राह बदल लूँ
तुम्हारे लिए मुश्किल न बनूँ
अगर कभी मिलूँ भी तो उस दोस्त की तरह
जिससे महज़ फ़र्ज़ अदायगी-सा वास्ता हो
या कोई ऐसी परिचित
जिससे सिर्फ़ दुआ सलाम का नाता हो। 
जानती हूँ
दूर जाना ही होगा मुझे
क्योंकि यही मेरी क़र्ज़ अदायगी है
थोड़े पल और कुछ सपने
उधार दिए थे तुमने
दान नहीं!

- जेन्नी शबनम (10. 10. 2011)
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मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

291. मुक्ति पा सकूँ

मुक्ति पा सकूँ

***

मस्तिष्क के जिस हिस्से में विचार पनपते हैं
जी चाहता है, उसे काटकर फेंक दूँ
न कोई भाव जन्म लेंगे, न कोई सृजन होगा। 

कभी-कभी अपने ही सृजन से भय होता है
जो रच जाते हैं, वे जीवन में उतर जाते हैं
जो जीवन में उतर गए, वे रचना में सँवर जाते हैं। 

कई बार पीड़ा लिख देती हूँ और त्रासदी जी लेती हूँ
कई बार अपनी व्यथा, जो जीवन का हिस्सा है
पन्नों पर उतार देती हूँ। 

विचार का पैदा होना, बाधित करना होगा अविलम्ब
ताकि वर्तमान और भविष्य के विचार और जीवन से 
मुक्ति पा सकूँ। 

-जेन्नी शबनम (11.10.2011)
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सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

290. तब हुआ अबेर (क्षणिका)

तब हुआ अबेर

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जब मिला बेर, तब हुआ अबेर
मचा कोलाहल, चित्र दिया उकेर
छटपटाया मन, शब्द दिया बिखेर
बिछा सन्नाटा, अब जगा अँधेर
'शब' सो गई, तब हुआ सबेर। 

- जेन्नी शबनम (1. 10. 2011)
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गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011

289. मेरी हथेली

मेरी हथेली

******* 

अपनी एक हथेली तुम्हें सौंप आई
जब तुमसे मिली थी 
जिसकी लकीरों में है मेरी तक़दीर 
और मेरी तक़दीर सँवारने की तजवीज़।   
एक हथेली अपने पास रख ली 
जो वक़्त के हाथों ज़ख़्मी है 
जिसकी लकीरों में है मेरा अतीत 
और मेरे भविष्य की उलझी तस्वीर।   
विस्मृत नहीं करना चाहती कुछ भी 
जो मैंने पाया या खोया 
या फिर मेरी वो हथेली 
जो तुमने किसी दिन गुम कर दी
क्योंकि सहेजने की आदत तुम्हें नहीं। 

- जेन्नी शबनम (4. 10. 2011)
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मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

288. भस्म होती हूँ (क्षणिका)

भस्म होती हूँ

*******

अक्सर सोचकर हत्प्रभ हो जाती हूँ
चूड़ियों की खनक हाथों से निकल चेहरे तक
कैसे पहुँच जाती है?
झुलसता मन अपना रंग झाड़कर
कैसे दमकने लगता है?
शायद वक़्त का हाथ मेरे बदन में घुसकर
मुझसे बग़ावत करता है
मैं अनचाहे हँसती हूँ चहकती हूँ
फिर तड़पकर अपने जिस्म से लिपट
अपनी ही आग में भस्म होती हूँ। 

- जेन्नी शबनम (1. 9. 2011)
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मंगलवार, 27 सितंबर 2011

287. अपशगुन

अपशगुन

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उस दिन तुम जा रहे थे
कई बार आवाज़ दी
कि तुम मुड़ो और
मैं हाथ हिलाकर तुम्हें विदा करूँ,
लौटने पर तुम कितना नाराज़ हुए
जाते हुए को आवाज़ नहीं देते
अपशगुन होता है
कितना भी ज़रूरी हो न पुकारा करूँ तुम्हें। 
देखो न
सच में अपशगुन हो गया
पर तुम्हारे लिए नहीं मेरे लिए,
सोचती हूँ
मेरे लिए अपशगुन क्यों हुआ?
तुमने तो कभी भी आवाज़ नहीं दी मुझे। 
तुम उस दिन आए थे
अंतिम बार मिलने
अलविदा कहने के बाद मुड़े नहीं
ज़रा देर को भी रुके नहीं
जैसे हमेशा जाते हो चले गए
जैसे कुछ हुआ ही नहीं। 
मैं जानती थी कि
तुम्हारे पास मेरे लिए कोई जगह नहीं
फिर भी एक कोशिश थी
कि शायद...
जानती थी कि ये मुमकिन नहीं
फिर भी...
तुम मेरी ज़िन्दगी से जा रहे थे
कहीं और ज़िन्दगी बसाने,
मन किया कि तुमको आवाज़ दूँ
तुम रूक जाओ
शायद वापस आ जाओ,
पर आवाज़ नहीं दे सकती थी
तुम्हारा अपशगुन हो जाता। 

- जेन्नी शबनम (27. 8. 2011)
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शनिवार, 24 सितंबर 2011

286. ज़िन्दगी शिकवा करती नहीं (तुकांत)

ज़िन्दगी शिकवा करती नहीं

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चलते-चलते मैं चलती रही, ज़िन्दगी कभी ठहरी नहीं
ख़ुद को जब रोक के देखा, ज़िन्दगी तो बढ़ी ही नहीं। 

क़िस्मत को कैसा रोग लगा, ज़िन्दगी कभी हँसती नहीं
वक़्त ने कैसा ज़ख़्म दिया, ज़िन्दगी शिकवा करती नहीं। 

कई भ्रम पाले जीने के वास्ते, ज़िन्दगी भ्रम से गुज़रती नहीं
रोज़-रोज़ तड़पती है, ज़िन्दगी चाहती मगर मरती नहीं। 

थक-थक गई चल-चलकर, ज़िन्दगी चलती पर बढ़ती नहीं
दम टूट-टूट जाता है मगर, ज़िन्दगी हारती पर मरती नहीं। 

क्यों न करूँ सवाल तुझसे ख़ुदा, ज़िन्दगी क्या सिर्फ़ मेरी नहीं?
'शब' मग़रूर बेवफ़ा ही सही, ज़िन्दगी क्या सिर्फ़ उसकी नहीं?

- जेन्नी शबनम (23. 9. 2011)
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बुधवार, 21 सितंबर 2011

285. मैं तेरी सूरजमुखी

मैं तेरी सूरजमुखी

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ओ मेरे सूरज
मैं तेरी सूरजमुखी (सूर्यमुखी)
बाट जोहते-जोहते मुर्झाने लगी
कई दिनों से तू आया नहीं
जाने कौन-सी राह पकड़ ली तूने
कौन ले गया तुझे?
क्या ये भी बिसर गया
कि सारा दिन तुझे ही तो निहारती हूँ
जीवन ऐसे ही तेरे संग बिताती हूँ
तुम चाहो न चाहो
तेरे बिना रह नहीं सकती
चाहूँ फिर भी तुम बिन खिल नहीं सकती
जानती हूँ तुम्हारा साथ बस दिन भर का है
फिर तू अपनी राह मैं अपनी राह
अगली सुबह फिर तेरी राह
लड़ लिया करो न, बादलों से मेरे लिए
ओ मेरे सूरज
मैं तेरी सूरजमुखी!  

- जेन्नी शबनम (17. 9. 2011)
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गुरुवार, 15 सितंबर 2011

284. चाँद-सितारे / chaand-sitaare

चाँद-सितारे

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बचपन में जब चाँद-सितारों के लिए मचलती थी
अम्मा फ़्राक में ज़री-गोटे से, चाँद-तारे टाँक देती थी
बाबा चाँद-सी गोल चौअन्नी, बड़े लाड़ से देते थे
मैं चाँद-सितारे पा लेने के भ्रम में, ख़ूब इतराती थी।

अम्मा-बाबा चुपके से, एक-एक चौअन्नी का हिसाब लगाते थे
दो चौअन्नी में कितने दिन, चाँद-सी रोटी पक सकती थी
दो वक़्त की भूख भूल जाते, जब लाड़ली उनकी इठलाती थी
एक चौअन्नी का ज़री-गोटा, एक चौअन्नी गुल्लक में भरती थी।

अब भैया ने, चाँद-सितारों वाला घर, ढूँढ दिया
चाँद-सितारों की खनक में, खिल जाएगी बहना
अम्मा-बाबा हार गए, दे न पाए, नकली वाला चाँद-सितारा
भैया ने ढूँढ दिया, जहाँ चंदा-सी चमकेगी बहना।

आज देखो, अब भी रेखाएँ नहीं बनीं, मेरी ख़ाली हथेली पर
रोज़-रोज़ देख तरसती हूँ, पा लूँ चाँद-तारे अपनी हथेली पर
तुम्हारा वादा था, भर दोगे दामन मेरा, चाँद-सितारों से
सात फ़ेरों सात वचनों बाद, मुझसे पहली बार आलिंगन पर।

अम्मा-बाबा, चौअन्नी और ज़री-गोटे से, मुझे भ्रम देते थे
भैया तुम्हारे घर की झिलमिल रौशनी से, भ्रम देता रहता
तुमने चाँद-सितारों की जगह, उपकृत कर मुझे ही जड़ दिया
अपने घर के झूमर में, बेमियाद चमकाऊँ, तुम्हारा घर-अँगना।

कब तक मन को तसल्ली दूँ, हुई बेनूर, चाँद-सितारों का भ्रम पालूँ
उन बेजान फ़्राक में टँके, ज़री-गोटे की तरह
कब तक झिलमिल चमकती रहूँ, पथराई आँखें, घर गुलज़ार करूँ
तुम्हारे घर में सजे, झाड़-फ़ानूस की तरह।

बोलो, कब ला दोगे मुझे ज़मीन पर, अब इस भ्रम से मन नहीं बहलता
क्या भर दोगे मेरी अँजुरी में, कुछ चाँद-सितारों-सा पल तुम्हारा
बोलो, लौटा दोगे वो वक़्त, जब निढ़ाल ताकती रही, असली वाला चाँद-सितारा
क्या भर दोगे हथेली की लकीरों में, तक़दीर का सच्चा चाँद-सितारा।

आसमान के चाँद-सितारे, अब कब माँगती हूँ तुमसे
बस चाँद-सितारों-सा कुछ पल, माँगती हूँ तुमसे
भर दो दामन में मेरे, अपने कुछ चाँद-सितारे
बस कुछ पल तुम्हारे हैं, मेरे अपने चाँद-सितारे।

- जेन्नी शबनम (नवम्बर, 2008)
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chaand-sitaare

bachpan mein jab chaand-sitaaron ke liye machaltee thee
amma frock mein zari-gote se, chaand-taare taank detee thee
baaba chaand see gol chauanni, bade laad se dete they
main chaand-sitaare paa lene ke bhrum mein, khub itraatee thee.

amma baba chupke se, ek-ek chauanni ka hisaab lagaate they
do chauanni mein kitne din, chaand see roti pak saktee thee
do waqt kee bhookh bhool jate, jab laadli unki ithlaatee thee
ek chauanni ka zari-gota, ek chauanni gullak mein bhartee thee.

ab bhaiya ne, chaand-sitaaron wala ghar, dhundh diya
chaand-sitaaron kee khanak mein, khil jaayegi bahna
amaa baba haar gaye, de na paaye, nakli wala chaand-sitaara
bhaiya ne dhundh diya, jahaan chanda see chamkegi bahna.

aaj dekho, ab bhi rekhaayen nahin bani, meri khaali hatheli par
roz-roz dekh tarasti hun, paa lun chaand-taaren apni hatheli par
tumhara wada thaa, bhar doge daaman mera, chaand-sitaaron se
saat feron saat wachanon baad, mujhse pahli baar aalingan par.

amma baba, chauanni aur zari-gote se, mujhe bhrum dete they
bhaiya, tumhare ghar kee jhilmilati raushni se, bhrum deta rahta
tumne, chaand-sitaaron kee jagah, upakrit kar mujhko hi jad diya
apne ghar ke jhumar mein, bemiyaad chamkaaun, tumhaara ghar-angna.

kab tak man ko tasalli doon, hui benoor, chaand-sitaaron ka bhrum paaloon
un bejaan frock mein tanke, zari-gote kee tarah
kab tak jhilmil chamakti rahun, pathraai aahkhen, ghar gulzaar karoon
tumhaare ghar mein saje, jhaad-fanoos kee tarah.

bolo, kab laa doge mujhe zameen par, ab is bhrum se man nahi bahalta
kya bhar doge meri anjuri mein, kuchh chaand-sitaaron-sa pal tumhaara
bolo, lauta doge wo waqt, jab nidhaal taakti rahee, asli wala chaand-sitaara
kya bhar doge hatheli kee lakiron mein, takdir ka sachcha chaand-sitaara.

aasmaan ka chaand-sitaara, ab kab maangti hun tumse
bas chaand-sitaaron-sa kuchh pal, maangti hun tumse
bhar do daaman mein mere, apna kuchh chaand-sitaara
bas kuchh pal tumhara hai, mera apnaa chaand-sitaara.

- Jenny Shabnam (November, 2008)
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मंगलवार, 13 सितंबर 2011

283. अभिवादन की औपचारिकता

अभिवादन की औपचारिकता

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अभिवादन में पूछते हैं आप
कैसी हो? क्या हाल है? सब ठीक है ?
करती हूँ मैं अविलम्ब 
निःसंवेदित, रटा-रटाया, उल्लासित अभिनन्दन 
अच्छी हूँ! सब कुशल मंगल है! आप कैसे हैं?

क्या सचमुच कोई जानने को उत्सुक है, किसी का हाल?
क्या सचमुच हम बता सकते 
किसी को अपना हाल?
ये प्रचलित औपचारिकता के शब्द हैं 
नहीं चाहता सुनना, कोई किसी का हाल
फिर भी पूछ्तें हैं, मैं भी पूछती हूँ 
मन में समझते हुए दूसरे का हाल। 

क्या सुनना चाहेंगे मेरा हाल
क्या दूसरों की पीड़ा जानना चाहेंगे
क्या सुन सकेंगे मेरा सच?
मेरा कुण्ठित अतीत और व्याकुल वर्तमान 
मेरा सम्पूर्ण हाल, जो शायद आपका भी हो थोड़ा सच। 

मैं तो जुटा न पाई हूँ, आप भी कहाँ कर पाए हैं 
अनौपचारिक बनकर सच बताने की हिम्मत
आज बता ही देती हूँ अपनी सारी सच्चाई 
कर ही देती हूँ हमारे बीच की औपचारिकता का अन्त। 

बताऊँ कैसे मेरा वह दर्द, वह अवसाद, वह दंश 
जो पल-पल मेरे मन को खण्डित करता है
बताऊँ कैसे मेरा वह सच 
जो मेरे अन्तर्मन की जागीर है 
मन के तहख़ाने में दफ़्न है
जानती हूँ, मेरा सच सुनकर आप रूखी हँसी हँस देंगे 
हमारे बीच के रहस्यमय आवरण हट जाएँगे
आप भूले से भी हाल पूछेंगे 
अच्छा ही होगा अब आप कभी 
मुझसे औपचारिकता नहीं निभाएँगे। 

कैसे बताऊँ कि मेरे मन में कितनी टीस है 
शरीर में कितनी पीर है
उम्र और वक़्त का हर एक ज़ख़्म, मुझसे मुझको छीनता है
अपनों की ख़्वाहिशों को पालने में 
ख़ुद को हर पल कितना मारना होता है
एक विफलता सम्बन्धों की 
एक लाचारगी जीने की, मन कितना तड़पता है। 

कैसे बताऊँ, तमाम कोशिशों के बावजूद 
समाज की कसौटी पर खरी नहीं उतरी हूँ
घर के बिखराव को बचाने में 
क्षण-क्षण कितना ढहती, बिखरती हूँ
वक़्त की कमी या फ़ुर्सत की कमी 
एक बहाना-सा बनाकर सबसे छिपती हूँ
त्रासदी-सा जीवन-सफ़र मेरा 
पर घर का सम्मान, सदा उल्लासित दिखती हूँ। 

कैसे बताऊँ, क्यों सम्बन्धों की भीड़ में 
एक अपना तलाशती हूँ
क्यों दुनिया की रंगीनियों में खोकर भी रंगहीन हूँ
क्यों छप्पन व्यंजनो के सामार्थ्य के बाद भी 
भूखी-प्यासी हूँ
क्यों जीवन से पलायान को सदैव तत्पर रहती हूँ।  

नहीं! नहीं! नहीं बता पाऊँगी सम्पूर्ण सत्य 
मंज़ूर है मुखौटा ओढ़ना
हमारी रीति-संस्कृति ने सिखाया है 
कटु सत्य नहीं बोलना
हमारी तहज़ीब है 
आँसुओं को छुपाकर दूसरों के सामने मुस्कुराना
यों भी सलीक़ा अच्छा नहीं होता, अपना भेद खोलना। 

अभिवादन की औपचारिकता है, किसी का हाल पूछना
जज़्बात की बात नहीं, महज़ चलन है ये पूछना
जान-पहचान की चिर-स्थायी है ये परम्परा 
औपचारिकता ही सही, बस यों ही हाल पूछते रहना। 

- जेन्नी शबनम (मई, 2009)
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